भोजपुरी जेंशन: वाह पढ़ाई! आह पढ़ाई!


कोरोना के एहि काल काल में सभसे अधिका नुकसान पढ़निहार लरिकन के हो रहल बा.घर में बियाठल-बियाठल ऊ अवसाद के शिकार हो रहल बाड़न स.लरिकन के स्कूल भेजे के नांवेंद्र – अभिभावक कांपि उठत बाबाजी.ऑनलाइन पढ़ावे के नए तरीके इमाड कइल गइल। बा, बाकिर मए लरिकन का लगे ना त स्मार्ट फोन बा आ ना पढ़ाई के अंगीकार करेके सूज़ बूज़ विकसित भइल बा.ढेर लोग के इहे कहनाम बा कि ई अभिभावकन से धन उगाहे के।, ठगी के एगो अउर जरिया बा।

सउ ने देश में कुकुरमुत्ता-अस-फियाल-पसारल शिक्षा के दोकान.पटना समझ-धज आ चमक-दमक से भरल-पुरल बाड़ी स ई बहुरंगी दोकान!उच्च दूकान फीकाप्रेस के कहाउत इहवें सटीक बियाहेला।पंपिक्स शो एह संस्थानन की खासियत होला.पिली का अलावा इतन सैम किछु होला.नाव बा पब्लिक स्कूल, बाकिर आम जनता नदारद बा.बस अलग-अलग तबका के खास आ खासमखास लोगन के लरिका-लरिकी सजि-संवरिके मउज-मस्ती करेलन स इं।

देखादेखी किछु गरीबो गुरबा अपना लरिकन के गाने बनाने के लवेसा से इन्हनीं के मायाजाल में अज़ुराके रहि जालन.अंगरियों आ अंगरेजिटी के एह बनावव माहौल में नवनिहंजन के ना त अंगरेजी के उपहित ज्ञान हो पावेले, ना हिन्दिए केँतीजा होला – धोबी के कुकुर, ना घर के, ना घाट के! बस्ता के भारी भरकम बोझा आउर कई व्हिम के सांसत झेलत बचवा अपना सहज लरिकाईं से हाथ धो बइठेलन स.पदिन के नॉन पर बस उहे ढाक के तीन पात।

तबे नू पहिले के वाह पढ़ाईअब आह पढ़ाई बनिके रहि गइल बा.पब्लिक स्कूल के मास्टर भल समान अंकल होखसु, बाकिर प्रबंधन आ मलिकार के त दूनों हाथ में लड्डू रहाला।इसी ही सरकारी स्कूल के चानी कटेवाला, बाकिर शिक्षा के हाल बा बदहाल-खस्ताहालअक ओरी शिक्षा माफिया के बोलबाला बाबा, त दोसरका ओरी प्रयोग पर प्रयोग के उतजोग हो रहल बा.बाकिर सैम काेन हो जात बा तँय-तानय फिस्स?

बहुत पहिले सैम केहू सरकारी स्कूल में पढ़त रहा.का छोट का ब।ड़.का धनी, का गरीब.तब पब्लिक स्कूल के नॉनों-मार्कर ना रहे आ तेउशन-कोचिंग का जगहा मास्टरो लोग खाली स्कूली पढ़ाई पर धाने देत रहे।ओह घरी कम-से-कम तनखाह पावेवाला अध्यादेशको के जवन इज्जत-शोहरत समाज में रही।, तवन आजु के प्रोफेसरो लोग के नसे ना होई।ओइसने दूगो पंडीजी हमरा मानस ग्राफ प आजुओ नाचत रहेलन।

पहिलका पंडीजी रहनीं – हेडमास्टर पं। राम प्रसाद पाण्डेय, जेकराके हमनीं के बड़का पंडीजी कहत रहलीं जा ।दलछपरा गांव के प्राइमरी पाठशाला में उंके प्रधानाध्यापक रहनीं आ ताजिनिगी ओही स्कूल में रह गइनीं.रेवती कस्बा से एक कोस रोज पैदल चलने की धुन पर उनावके ऊणावणी पढ़ावन में पढ़ रही थीं। खुलते मए लरिका एने-ओने से बनकट कटिके ओही से झारखंडी-बहारिके स्कूल परिसर के स्वच्छ-चिक्सन कऽ दऽ स।

बड़का पंडीजी हरेक विषय मातृभाषा भोजपुरी में पढ़ाईं आ अइसना विधि से स्वच्छ-स्वच्छ समुझाईं कि ऊँ फेरु कबो भोर ना परत रही।प्राइमरिए पाठशाला में उँके मिडिल तक तक की किताब ले आके पढ़ा-लिखा देत रहनी।, तमोियो के दिन बोलाके पढ़ावे लागत रहनीं.जब ले उँके रहनीं, हर साल कवनो-ना-कवनो लरीका के वजीफा जरूर मिलत रहा।प्रधावे में उँके तनिको कोताही ना करीं ।तेजस्वी लरिका अउर तेज हो जा स स मंदबुद्धि वालन में।

पढ़ाई खातिर रुचि जही जात रही। लरिकन का संगें-बेंडको पंडीजी इचिकियो कोष्ठी ना करीं पढ़ पढ़े दिन रात-रात एक कऽ देत रहनीं।फिर त स्कलरशिप मिल वही के साथ। पढ़ाई का संगे-संगेन्द खेलकूद, बागवानी, सांस्कृतिक कार्यक्रम, नाटक, कविताई– समे हलका में उान के मजबूत पकड़ रहा।

एकरे परिणामजा रहा कि उणके हरदम ई कोशिश करीं, जवना से लरिकन के सर्वागीण विकास होके.अकरा खातिर उँके जीवन मूल्य से जुड़िके शिक्षा देत रहनीं.कई-कई परिवार के त तीन-तीन पीढ़ियन के उँके पढ़ावले हनीं.अनुशासन के ममीला में ऊँके अत्तूतिल रहनीन कि मनभावन दुःख और दुःख का सामना करना पड़ता है। मनला पर बेंत बरिसाके बस में कह लिहल उँके बाएँ हाथ के खेल रहे।बाकिर केहू के का मजल जे अपना लरिका के पिटाईला के शिकाइत करो।उनके गाँव भरि के लोग-लुगाई के दिल जीती लेले रहनीं।

अइसने एगो अउर पंडीजी पेशीनी मिडिल स्कूल में। प्रणव रहे पं। जगन्नाथ पाण्डेय।उनके जूनियर हाई स्कूल, रेवती में अंगरेजी के अध्यापक रहनीं.उन्के जब अंगरियों के पाठ का अध्ययन किया जाता है, त ओह पाठ से मेल खात कवनो लोककथा पहिले भोजपुरी में सुना दीं.फिरु त ओह वस्तुओं के समुझ में इचिकियो समस्या ना होत रहा।ंगरेजी के शब्द, मुहावरा के भोजपुरी अंचल के शब्द, मुहावरन से मिलावत उमनके शोरूम कंठस्थ करा देत रहनीं.किस्सा-कहानी गढ़े में त उमनके महारत हासिल कर रही ।कबो अइसन बुझाइबे ना करे कि उतनके विदेशी भाषा सेवत बानी।

ओह घरी ई बात समुझ ना आवत रही कि उणके अइसन काँ करत बानीँ.बकिर आजु जब भाषा वैज्ञानिक लोग ई सिद्ध करि चुकल बा कि मातृभाषा के मार्फ़त दील शिक्षा शिक्षासे अति प्रभावशाली प्रभावी होई, तब ओह पढ़ाई के मोल समुझ में आ रहल बा.ओह घरी हमारे पूर्वज पुस्तक का माध्यम भारतीय संस्कृति आ सुसंस्कार के सीखने के खेल-खेल में दिया जात रहा है।तब बुनियादी शिक्षा के ना सिरिफ किताबी ज्ञान दिहल जात रहे, बलुक दिन के जिनिगी में ओकर बेविकल इस्तेमालो बुज़ावल जात रहा।

तब हाय-हलो‘,’शुभ प्रभात ‘,’चाहे नाइट हो आउर नमस्ते अंकल के ना, गोड़ छूके प्रणाम करेकेँ सबक लरिकइँ में दिए जात रहे, जवना में दिल, माथ आ हाथ – तीनों एके साथे सरधा से झुकि जा रहे हैं। ओह घरी दिमाग में सूचना के भंडार भरिके पढ़निहारन के प्रबंधित रोबोट बनावे के ना।, एगो बेहतर इंसान बनावे के मकसद होत रहे। आजु शिक्षा के बैपारी टीचरन, शिक्षाविद के कारगुजारी देखि-सुनिके आ बस्ता के बोझा तरे दबाइल तनावपूर्ण बुतरुन के बिलात बचपन के खोज-खोजि के हलकान होत।,भाषण पर अनसोहाटे ई बात आ जाला —वाह पढ़ाई! आह पढ़ाई!





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