भोजपुरी जंकशन: अनकर सुख: आपन दु: ख खेलि ना खेले देबी, खेलिए बिगाड़बोबी


ने एगो सउँसे सप्ताह के खुशहाली के हफ्ता का रूप में मनावल गइल आ एह में समे केहू सचहुँ के सुख हासिल करे में लावण रहल। का कारन बा कि तमाम संसाधन के अछैत लोग आप-आपन दुखड़ा रोवत बा। आजु का आनंद सुख गढ़ा के सींग बनि गइल बा? रट्टू के सरकारी नोकरीहा पुत्र के बियाह में जब बेमंगले तिलक-दहेज़ के ढेरीगे जी गइल, त पट्टीदार भिलोटन के करेजा के सांप लोटेगेगे। अरे बाप रे बाप! अटेंशन तिलक-दहेज़ रत्सुवा ससुरा कहँवा राखी? भिलोटन अपना बेटा खातिर लाख हाथ-गोड़ पटकले, खूब मोलभाव आ हुज्जत कइले, बाकिर नगद-सामान – कुल्हि मिलाके एको लाख ना पावल पावल।

एने रट्टुवा के देखऽ! किछु मंगबो ना कइलस आ सभ किछु पाइओ लिहलस। ठीके नू कहल गइल बा – बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख! अब त भिलोटन के रात के नीं गायब हो गइल, दिन के चैन छीना गइल। दिन-रात ऊ एही सोच-फिकिर में अज़ुरा गाइले कि खुशहाल रट्टुवा के परिवार के कइसे जीयल मोहाल कइल जा सकेला? भिल्लोटन आपन मए काम-धाम भुला गइले आ रट्टुवा के तबाह करेके मकसद पर जीव-जान से भीड़ गइले। भिलोटन खाली एगो अदिमी के नॉन भर ना ह। आजुकाल्ह गाँव-जवार में अइसने भिलोटन के भरमार बा। अइसना लोग के दु: ख-तकलीफ के कारन आपन दु: ख-तकलीफ कतई नइखे।

इन्हिकरा पीर के कारण ई बा कि फलनवां का सें सुखी बाबाजी आ कइसे उन्हुकराके बरबाद कइल जा सकेला? उन्हुकरा बरबादी में भल ही आप कवनो नफा-नुकसान ना होके, बाकिर उन्हुकर दु: ख के दिन लपतावे आ ऊहुकरा के दुःख का दुःख उठाती। करी। आपन एगो आंखि फूटी गाइला से ‘काना’ के विशेषण भल समान प्रस्तुतौ, बाकिर दोसरा के दूनों आंखि फोरिके ‘सूर’ कहिके चिढ़ावे के मजे किछु उउर बा! गाँव-गाँव में ई जोड़ सुरसा-अस मुँह बवले बढ़ते जा रहल बा। केहू बहिवांसू बहरा से जांगर ठेठाके, नोकरी-चाकरी कऽके दो प्यासा गांवें ले आइल, ग॔वई लोग हाथ धोके ओकरा पाछा परि हो जाता है कि कवना रास्ता ओकरा के कंगल बनावल जाउ!

कइसे ओकर जिनिगी नरक में बदलिके जीयल दुलम कह दिहल जाऊ? खेलिबा ना खेले देबी, खेलविद्याबिंब! पहिले दोसरा के दुःख से लोग दुखी होत रहे आ परदुखकातरता मनई के महान गुन मानल जात रहे। तबे त हरेक इंसान दोसरा के पीर में हाथ बंटावल आपन फरज बुझत रहे – ‘वैष्णव जन ते तेने कहा जे पीर पराई जाने हे!’ बाकिर अब त पराया सुखे सभसे बड़का दु: ख बनिके करेजा में सालत रहत बा। देवी-देवता-पितरन से अपना बढ़न्ती खातिर ना, दोसरा के तबाही खातिर भखौटी भाखल जात बा। भरभस्ट तरीका अपना के अधिका से अधिका धन संहिता XVice भौतिक सुख के ललसा आजु जिनिगी के मकसद बनि गइल बा आ ओही अरथ खातिर मए अनरथ हो रहल बा – ‘सबहि नचावत अरथ गोसाईं!’ अब ले सभसे बड़का धन ‘संतोष धन’ के मानल जाला! रहल हा, जेकरा आगा बाकी धन-दौलत धूरी बुझत रही-

‘गोधन-गजधन-बाजीदान, अउर रतनधन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान। । ‘

लेकिन अब संतोष कहां? सम केहू पागल भइल बा – भौतिकता के मृगमरीचिका का पाछा। बाकिर समुंदर के पानी से भला कबो तरास बुज़िला! जतने लोग संगीर डुबकी लगावत बा, अनुकरणोश आ पियास अउर बढ़ते जा रहल बा। परिणामजा बा तबाही आ दु: ख। पहिले अपना से निचिला तबका के हाल देखिके लोग खुशी के अनुभूति करत रहल, बाकिर अब अपना से अधिका वाला के औकात देखिके लोग दु: ख झेलत बा आ भीतर-भीतर इरिखा के आगी – जरत-बुतात बा।

सवाल उठत बा, गांव में सुख-सुविधा बढ़ला का बादो का लोग सुखी बा? पहिले अभाव में रहलो पर बच्चों के जीवंतता मनई के जिनिगी के जियार बनवले राखत रहे।

बाकिर अब टीवी, फ्रिज, लैपटॉप, स्मार्ट फोन, बिजली, और-माटी का जगहा पक्का के शानदार कोठी आ Whim-Whim के भोजन, रहन-सहन में तरक्की के बावजूद ना त केहू के पहलू प सुख के भाव ललित बाबा ना ना सही। माने में जिंदादिली से जिनिगी जीए के कवनो लच्छने लुआकत बा। गांव से नोकरी-चाकरी, रोजगार-बैज खातिर जे नगर-महानगर में जाट बा, ऊ गांव के हरदम-हरदम खातिर भुला-बिसरा देत बा। शहर में केकरा फुरसत बा, जे ऊ दोसरा भा बगलगीरो का बारे में सोचते हैं! सभे केहू बा अपने में मगन आ मस्त। उहवें त सभ किछु तापमान आ रस्मी बनिके रहि गइल बा। ना केहू से दोस्ती ना केहू से बैर!

एह से ‘कर बँहिया बल आपनो छाड़ि विरानी आस’ के दर्शन में अकेलेपन के दंश झेले के त्रिपदी। बाकिर गांव के लोग त दोसरेके सुख से फिकिरंत बा। बुरबक मुअले पराया के फिकिरी! स्वामी विवेकानंद जी के अद्वैत दर्शन ई मानेला, जे दुनिया-जहान में जतन जीव बापन, सैम एके शिशुपन, दोसर केहू हइए नइखे। एह से जब हम केहू के दुःख दे तानी, त खुद दुखी हो तानी आ जब सुख दे तानी, त दिलहुँ सुख पावत बानी। सचहुँ खुशी पावे खातिर खुशी-खुशहाली बांटे के परेला। एही से इहो सवाल उठत बा कि आखिर अनकार सुख छीपर गईवई बटमारन से भलमानुस लोग भला कब ले भागत रहे? राहुल सांकृत्यायन के सोझ-साफ कहने वाले – भाग मत, गाँव के बदलऽ! सांच सुख पावे खातिर एहि पर अमल आवश्यक बाबा।





Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *