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भोजपुरी में पढ़ें – मकइया रे तोर गुन गवलो ना जाला
मेथी आ मसर साग
ओइसे त अब पूरा साल धनिया के पतई चटनी खातिर मिलता है, बाकिर ओकर असली दिन जाड़ उसी होला, सेहतमंद मेठियो के साग के इहे असली दिन होला। एही घरी बूंट, खेसारी, मटर आदि-आदि के सागो ख पैदा होला। सरसों के साग के पूरा पंजाब गुणगान करेला..मकई के रोटी आ सरसों के साग के शोहरत सात समंदर पार ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस तक पहुंचि गइल बा। देही-धाजा बनावे वाला खाद्य पदार्थ एही घरी ढेर मेटला।गांव के देशी के स्वाद याद आवेला
जब अगहन-पूष के दिन में सुरूज भगवान}, कुहरा आ सीति के बीच लुकाछिपी करेगेगे, ओह बीच जइसहिं उनुकर दरसन होला, पूरा सरेही अइसेगेसे, जइसे धरती माई हरियर चदरी ओढी के बियाठल होखसु। बीच-बीच में सरसों के पीयर फूल, मटर के बैंगनी-सफेद फूल, पहलेदा के उजर फूल अइसेगेसेला, मानो धरती माई के हरियर चाद्री में लगे सुनहला डिजाइन होके। आजु से तीस-चालीस साल पहिले उपर जाताना बातु के नाम लिहल गाइल बा, ओकर देसी संस्करण बोआत रहा आ ओकर स्वाद कुछु अलगे रहत। वास्तव में अब देसभर के खेती-किसानी वाले शोध संस्थान ए विश्वविद्यालय हर देसी अनाज, तरकारी, साग आदि के जीन बदलि देले शिशुपन स। एह से ओह सब के पैदावार त बढ़ि गइल बा, बाकिर देसी सवाद कहीं गायब हो गइल बा।
पहिले जवन देसी टमाटर रहे, ओकरा स्वाद में तनी खट्टरसुपन रही। ओह घरी कांच टमाटर के आगि पर पका के धनिया के पतई आ हरियर लहसुन डालि के जवन चटनी बनत रहे, ओकर जे सवाद लेले होई, ओकरा पता बा कि ऊ कइसन रहे, अबो टन टमाटर मिले, बाकिर ओह में ऊ सस्मि नाइके, अब कांच होके भा पाकाल, हर टॉम मिहेगेसेला।
इहे हाल पालकी के सागो के हो गइल बा, पहिले जवन देसी पालकी मिलत रहे, ओकर रूप दुसरे रहे। ओकर डांट लाल रहत रहू..पतई ओकर तिनकोनाह होत रहू। अब उ पलकी खोजी के रौंआ थाकि जाइबी, सायदे मिल पाइ.जगत बा कि ओकरो सवाद में अलगे किसिम के सवाद होत रहे। आजुकल अब देसी बूटो-मटर गायेब हो गइल बा। एकरा कारण से ओकरो सवाद में देसीपन नइखे रहि गइल।
जाड़ के इंतजार में
तीन-चार दसक पहिले तक एह सवाद के हर भोजपुरिया आदी रहे। जाड़ के दिन के लोग इंतजार करत रहे, सेहत बनावे खातिर। जइसहिं जाड़ आवत रहा आ सेहमंद साग, तरकारी मिलल सुरू होके, तब ओकर व्यवस्थाजाम होके लागत रहे। व्यवस्थाजाम त अबो होला, बाकिर ओकरा में सवाद ना रहेला।
सोठ, मेथी आ चउरठ के लड्डू
जाड़ के दिन में भोजपुरी समाज में घर-घर तिसी, सोंठ, मेथी के भूंजल चउरठ के संगे गुर के पाग में लड्डू बनत रहल हा, जवना के पौष्टिकता की अब दुनिया भी मानि लेले बा। अब त कोलस्ट्राल ठीक रखे खातिर, डाय कंट्रोल करे खातिर, कैल्शियम खातिर एह सब खाना के सेहतमंद मानल जा रहल बा। धेयान देबे के चा वही कि ई सब बातु जाड़हिं के दिन में मेटला, बनेला आ खाइल जाला। देहाती में सेहत खातिर एगो बरहमासा बा.ओकरा में कहल बा।
अगहन तेल, पीश दूध, माघ-मास घीव-खिंचे खाय
यानी जब ठंड लगने का असर अगहन महीने में देखावेगे तो तेल के मालिश के संगे ओकर भोजन में इस्तेमाल किया गया देबे की चाट। एही तरि जब जाड़ आउर बढ़ि जाइ त अइसन पूष महीना में रोजो दूध के प्रयोग बढ़ा देवे चा यहां, जब माघ में ठार पड़ेगे यानी कसि के ठांढा पड़गे, तब खिलेड़ी में खुदे घीव डालि के खाए के चाट।
सवाद आ सेहत के दिन जाड़ के सवाद के लवटा खातिर कइ गो संस्था अब काम कर तारीफ स। अब गांवन में कइ लोग देसी पालकी, टमाटर आ लहसुन के खोजल सुरू कइ देले बा। देसी बिया यानी बी के मार्फत सवाद के संगे देसी आ पारंपरिक सेहत के लफ्तावे के कोसिस बढ़ि गइल बा। लोग देसी बी बैंक मेवले बा। जाड़ के लेके भोजपुरी समाज में ऐगो कहात कहे प्रचलित बाबा।
लयकन के छुअबि ना, जवान गुरू भाई।
बुढ़वन के छोड़ि ना, कतनो ओढ़िँ राजै।
माने कि लइकन से जाड़ महाराज के संहतियाई होला, जवान लोगन के उ गुरूभाई मानेले, बाकिर पुराने लोगन के उ खूब सतावेले, चाहे ऊ लोग कतनो रजाई-दुलाई ओससु लोग। बाकिर एकरो काट मौसम में मिलेवाला सेहतमंद साग, तरकारी से मेटाला। कहे के मतलब ई बा कि जाड़ से देउयुन मति। ठंड के दिन में मिलेवाला आपाना सरेह के हरियारी, तरकारी, घीव-दूध आ तिसी के संतुलित इस्तेमाल करीं। पुरानका सवादक के खोजं आ आपाना संस्कृति के ओरदि करीं।