भारत में खेती-बारी का भाव पहिले नंबर एक पर रहल। जेकरे खेत अउर खेती न रहै, ओकर समाज में कौनो इज्जत न होय, दरिद्र मानि जाय जाके। आदमी के औकात क अंदाजा दुआरे क चन्नी और चन्नी पर बन्हल बरधन यानी बैलान से लगावल जाय। जेकरे दुआरे चन्नी पर जेक्शन जोड़ी बैल रहय ओके ओतनै संपन्न समझी जाना। केतना जने के इँ लड़ाइयों के शादी-बियाह बदे देखुआर आवं त उ आपन औकात बढ़ावै खातिर दूसरे क बैल लियाइके अपने चन्नी पर बांधी माँग। बनारसी में कहावत हौ -चन्नी बर्द भुसौले भूसा, जात-पात एक्को जिन पूछा।
मतलब जेकरे चन्नी पर बैल बन्हन होय और भुसौले में भूसा भरल होय, ओकरे इँत शादी-बियाह आंख बंद कइके कइ ल, सुजाती हौ कि कुजाती हौ, पता कइ नाहि। चन्नी मतलब जहाँ पशु बांधल जालन, अउर भुसौल मतलब जहाँ भूसा रखल जाला। खेती-बारी में कनेक्टर अउर हारवेस्टर क जमाना आवै से पहिले किसानन के दुआरे पशुन की चन्नी अउर पूरे साल पशुन के खाये खातिर भूसा रखे बदे भुसौल जरसलाई रहै। पशु, नर और प्रकृति खेती क अधार रहन। कहावत रहल -बर्द मर्द क खेती।
खेती में कौनो खर्चा नाही रहल। हल-बैल से जोताई, पशुन के गोबर की खाद, तलाबा-कुंआ के पानी से सिंचाई, अउर घी की बीज। अंगरेजी में एही के आज जीरो कास्ट खेती कहल जाला। लेकिन आज क हालत बिल्कुल सही से उल्टी गयल हौ। खेती में अब खाली कास्ट रहि गइल हौ, पइसा क खेल होइ गइल हौ खेती। आज के तारीख में त ª क्टर क जोताई 300 रुपिया बिधा हौ। अब सबके पास ट्रैक्ट त बा नाही, केराया पर लेई के जोतवावा। ओइसे भी डीजल एक्शन एक्सपर्ट होइ गइल हौ कि जेकरे ट्रेंड हौ, उहो अब हिसाबै से खेत जोतैला। बोई तक जहाँ पहिले 10-12 खेतों की जोताई, अब पाँच-छः क्षणों से काम चलाई लेलन लोग। लेकिन खेत के अच्छे से जोतले बिना फसल नहीं होत। खेती क जान जोते होला। बिरवा जामा बदे मट्टी नरम चाहेला अउर मट्टी नरम बनाव बदे खेत के अच्छे से जोताई जरूरी हो।अब एक बिगहा खेत के छह क्षण भी जोतवाव के मतलब खाली ट्रैक्टर क केराया 1800 रुपिया। ओकरे बाद बजार से खाद जोड़ा गया, बीज खरीदा, फिर पंपसेट-टुबेल से सिंचाई करना, सबके बदे खीसा में पिया चाही। फसल के कौनो रोग-बियाद पकड लिहेस त बजारी से खरीद के कीटनाशक स्ट्रोकका। अबही भी हूओ यकीन ना वही कि फसल खेते से घेरे पहुंची जाई। अगर दऊ क आफत इ गयल त पूरी लागत पानी में।
फसल अगर बची गयल त मशीन से कटाई-मड़ाई बदे भी पिया चाही। एविशन कुल कइले के बाद जब फसल बेचै क बारी आयल त गजरे क भाव। फायदा क बात त दूर लागत निकलि आवै त धन भाग। नाही त घरहु क उरदी जेगरे में। सरकार किसान क फसल खरीदै बदे शैलपी घोषित करेला। लेकिन जीएमपी क हालत इ हौ कि खाली छह प्रतिशत फसल क खरीद ओपी पर होला। बाकी साहूकारन के भरोसे।
आज के खेती-किसानी के इ असली तस्बीर हौ। किसान करजा में पैदा होला अउर करजा में ही मरि जाला। एही होने के नाते आज के जमाने में नई पीढ़ी खेती-किसानी से दूर भागत हौ। भारत क खेती बरबाद होइ गइल हौ। इ बरबादी विनिर्देशि के कयल गयल हौ। पहिल जब अंगरेज इतन रहलान तब खेती के सीधे बरबाद कइलन अउर इआन से गाइले के बाद उबालटीओ के जरिए बरबाद कइलन। हमार सरकार भी खेती बरबाद करै में खेती रहल हौ। अब 1951 में देश की अर्थव्यवस्था में खेती क जोगदान 51 प्रतिशत रह गई, लेकिन 2011 में घटि के 19 प्रतिशत रही गयल, फिर 2019-20 में अउर घटि के 16.5 प्रतिशत रहि गइल।
गूघ क कहावत हौ – उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चकारी भीख निदान। लेकिन जवन कृषक समाज में सिरमौर पेशा रहल, उ अब रसातल में चलि गइल हौ। जवन बैल पहिले दुआरे क शान रहत रहलन, अब ओनकर जगह या त कसाईबाड़ा हौ या फिर उना यानी आवारा बानी के घूमत हयन, ओनकर स्वागत लाठी-डंडा से कयल जाला।
भारत गांव क देश रहल। देश में पहिली बार 1901 में जब जनगणना भयल टी शहर की आबादी खाली 11 प्रतिशत रह गई। यानी 89 प्रतिशत आबादी वाले गांव में रहत अचल अउर ज्यादातर लोग खेती-किसानी पर निर्भर रहते हैं। चालीस साल बाद 1951 में भी देश क 70 प्रतिशत आबादी खेती-किसानी पर निर्भर रह गई। लेकिन 2011 आवत-आवत इ औसत घटि के 55 प्रतिशत पर आइ गयल। एकरे बाद 2019 में आकड़ा लुढ़क के 42.39 पर पहुंचि गोयल। आज शहर क आबादी 34 प्रतिशत से अधिक होइ गइल हौ। खेती जब घाटे क सउदा होइ गयल, गांव में करे बदे कौनो काम नाही रहि गइल त नई पीढ़ी का करी। पेट पालै खातिर शहरै न और।
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पहिले जे तुम-गांव घर छोड़ि के बहरे कमाए हो ओकर समाज में बदनामी होय। ओके दरिद्र मानि जाय। जेकरे घेरे बागानी से खरीदारी होय ओहू के दरिद्र मानि जाय। लेकिन आज जमाना बदलि गइल हौ। आज बजार का जमाना हौ – हाट बजार केकर, जे ले दे ओकर। मतलब सबकुछ बजार पर निर्भर हौ। बजार से बहरे कुछ नाही हौ। जब सकुच बजार होइ गइल हौ त अब खेती-बारी भी बजार के सौंपै क पूरी तइयारी हो। अइसन-एइसन कानून आवत हौ कि खेती-बारी क जवन बचल-खुचल सोर बा, उहो उपरि बा।
जाइसे सरकारी कंपनी बेचै बदे पहरे कमजोर केयल जाला, ओके घाटे क कारोबार मेवल जाला अउर फिर अंदरखाने सउदा कइके ओके अपने मनइन के औना-पौना कीमत में बेची दिगलल जाला, उहे हाल की खेती कयारल हौ। पहिले घाटे घाटे के कारोबार बनावल गयल, किसान के कमजोर अउर कर्जदार बनावल गयल अउर अब एके बेचै क बारी हा।
किसान भाई इ मठ अच्छी तरह से समझी लेय। खेती अउर किसान के बचावे क खाली एकै उपाय बचल हौ। खेती क खर्चा घटावल जाय। जोताई तेरी अब बैल से न होइ पाई, काहे से कि न त अब हरवाह रहि गइलन अउर न हल-बैल क व्यवस्था रहि गयल हौ। एविशन केहू के समय भी नाही हो। लेकिन पशुन के बिना खेती न होई। बैल हल न खिचहै, लेकिन खेती क उनर काम करिहै। बैल गन्ना क पेराई कई सकेलन, दिनभर अल्टीनेटर घुमाइके बिजली पैदा कइकेकलान। बैल क गोबर खेती के अनिवार्य रूप से चाही। बिना गोबर के खेती ना होई -गोबर मैला नीम की खली, एनसे खेती दूनी फली। खेती क इ पुराना सूत्रूला फिर से गरमाव के पड़ी। किसान के कर्ज अउर मर्ज से मुक्ति तबै मिली, जब खेती बजार के खाद-बीज से मुक्त होई। जमीन क भूख भले असमान पहुंची गयल हौ, लेकिन एक आदमी के साथ नीलापन चाही, एके जाने बदे रूसी लेखक लियो टाल्सटाएय क कहानी पढ़ी ल। हाउ मच लैंड डज अ मैन नीड। महात्मा गांधी के इ कहानी एतना बढ़िया लगल रहल कि उ एकर गुजराती में कइले रहलन।