लाली: तन्हाई रोएगी कि मेरा हमसफ़र चला गया


फिल्म-महोत्सव जगत में धर्मशाला आंतरिक फिल्म समारोह (धर्मशाला अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव) की अपनी एक विशिष्ट पहचान है। अन्य फिल्म समारोह की चकाचौंध, नामी फिल्मकारों और अभिनेताओं के देवीय दर्शन और मिलन की कामना के लिए दर्शकों की भीड़ से इतर धर्मशाला आंतरिक फिल्म समारोह विशुद्ध फिल्म देखने का सहज आनंद देना वाला समारोह रहा है। नैसर्गिक पर्वतीय सौन्दर्य के बीच बेतकल्लुफी में राष्ट्रीय-आंतरिक स्तर की उत्कृष्ट फिल्में देखने का सुख बयां नहीं सिर्फ महसूस किया जा सकता है।

इस वर्ष कोरोनावायरस (कोरोना वायरस) की वजह से यह समारोह ऑनलाइन माध्यम से दर्शकों तक पहुंच गया। कई ऐसी फिल्में भी इस समारोह में देखने को मिलीं जिन्हें राष्ट्रीय और आंतरिक स्पर्धाओं में चयनित, सराहना और सराहा गया था। एक सप्ताह तक चले इस महोत्सव में फिल्मों की सूची इतनी लम्बी थी कि सभी फिल्में देख पाना असम्भव था। इसलिए आयोजकों ने इस समारोह की मियाद और आगे बढ़ा दी थी। ज्यादा से ज्यादा फिल्म देखने के लालच के चलते शॉर्ट फिल्म की तरफ दर्शकों का रुझान ज्यादा रहा। ‘इंडियन शॉर्टस’ श्रेणी में इस वर्ष कई युवा और नए फिल्मकारों को प्रि दी गयी। इसके अलावा डाक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म के मुकाबले लघु फिल्म वर्ग में भारतीय फिल्मकारों की बड़ी नुमाइंदगी रही।

इसी श्रेणी में अभिरूप बासु द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लाली’ (लाली) खासी चर्चा में रही। ‘लाली’ अकेलेपन और उससे निकलने की उदास छटपटाहट की कहानी है। लाली का केंद्रीय पात्र एक दैनिक रिवायती ढांचे में फांसा हुआ एक शख्स है, जो अपनी बनाई दुनिया में रहता है। इस दुनिया में उसके कपड़े हैं, जिन्हें वह प्रेम से पहने कर विदा करता है। सालों पहले गाँव में ओर्केस्ट्रा की अभिनेत्री ‘लाली’ का पोस्टर है, बहुत पहले अपने गाँव की मेले में ठसाठस गर्दन मटकती गुड़िया है और हर दिन एक निश्चित समय पर उसकी दुकान पर शराब पीने की बोतल है। अपनी इसी दुनिया और यादों से वो अपने हीकीपन को रोज बहलाता है। फिर एक दिन उसकी जिन्दगी में लाली का प्रवेश होता है। लाली उसके जीवन की सभी कोमल तस्वीरों को खोल देती है और प्रेम उसके भीतर प्रवेश करने लगता है।

कहानी एकलाप शैली में न केवल कही गयी है बल्कि दिखाई भी गयी है। फिल्म को ‘सोलो परफॉरमेंस’ कहना गलत नहीं होगा। हालांकि कई सहायक पात्र आते हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति को अलग किरदार नहीं माना जा सकता है। अक्सर अभिनेता को एक मजबूत किरदार की दरकार होती है लेकिन लाली ऐसी फिल्म है जहां कहानी एक अच्छे अभिनेता की मांग करती है। यही कारण है कि इस फिल्म के मुख्य पात्र के रूप में निर्देशक ने पंकज त्रिपाठी का चयन किया। फिल्म के निर्देशक अभिरूप बासु कहते हैं कि ‘पंकज त्रिपाठी एक्टिंग के वीरेंद्र सहवाग हैं। जैसे वीरेंद्र सहवाग को ये पता नहीं होता है कि वो अगली गेंद कैसे खेलेंगे ऐसे ही पंकज सर को पता नहीं होता है कि वो अगले सीन में क्या करने वाले हैं। यही उनके प्रदर्शन को खास बनाता है। ‘

पंकज त्रिपाठी बिना कुछ तय किए जो स्वाभाविकता गढ़ते हैं, वही इस फिल्म को दर्शकों से बांधती है। उनकी यही स्वाभाविकता इस फिल्म में अद्भुत रियलिस्म पैदा करती है। बलराज साहनी ने एक बार कहा था -अभिनय अगर स्वाभाविक है तो हर कोई उसे पसंद करता है। दर्शक को स्वाभाविक लगने वाला अभिनय करते समय हो सकता है अभिनेता को कई अस्वाभाविक चीजों को पड़ना चाहिए। उसका दृष्टिकोण दर्शक के दृष्टिकोण से भिन्न होता है। ऐसे हर अधिकारी की अपनी तकनीक होती है, जिसे उन्होंने गहन अध्ययन और लम्बे अभ्यास के बाद सीखा होता है।

यह कहना गलत नहीं होगा की पंकज त्रिपाठी इस फिल्म में वीरेंद्र सहवाग ही नहीं बल्कि सचिन तेंदुलकर भी हैं, जिनकी मजबूत कन्डिशंस पर ये पूरी फिल्म टिकी थी और वे इसे बखूबी निभा ले गए हैं।

फिल्म पर एक अभिनेता की इतनी निर्भरता पर निर्देशक अभिरूप बासु कहते हैं कि वे हमेशा एक्टर को जेहन में रखते हुए ही फिल्म लिखते हैं। इसलिए उन्होंने जब इस फिल्म के बारे में सोचा तो पंकज त्रिपाठी ही उनके जेहन में थे। और वे इस मामले में अभी तक भाग्यशाली रहे हैं। अपनी पिछली लघु फिल्म ‘मील’ में भी उन्हें आदिल हुसैन की तरह महारानी के साथ काम करने का मौका मिला था।

लाली में पंकज अपने इर्द-गिर्द प्रदर्शन की एक खामोश दुनिया रचते हैं, जिसमें वेस्टेशन और रुकव परफॉर्मिंग कपड़ों की व्यवस्थित तह लगाते हैं और आस-पास हो रही घटनाओं पर एक मौन प्रतिक्रिया देते नजर आते हैं। इसमें दैनिक कार्य-व्यापारों में पंकज त्रिपाठी की सूक्ष्म प्रदर्शन की बारीकियां हैं। अगर इन बारीकियों को आपने नजर अंदाज किया तो हो सकता है कि आप उनके प्रदर्शन के अस्वादन से महरूम रह जाएं।

फिल्म लाली में सिर्फ अभिनय में ही नहीं, बल्कि कैमरे में भी एक ठहराव नजर आता है। कैमरा तसल्ली से मुख्य किरदार को उसकी शादी जिन्दगी के साथ अपलक निहारता है। फिल्म का पहला ही दृश्य बिना किसी ‘कट’ के लगभग 9 बा मिनट लम्बा है। इस ‘अनकट’ दृश्य में कैमरा कहीं टहलता हुआ भी नजर नहीं आता, बस एक जगह जमकर रुक जाती है। यह दृश्य लम्बा और नीचे होते हुए भी बहुत ज्यादा नहीं लगता। अभिरूप इससे पूर्व अपनी फिल्म ‘मील’ में भी ‘लावग शॉर्ट’ का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। वे मानते हैं कि हर छोटे अन्तराल पर कैमरा कट करने से एक कृत्रिम सा भाव पैदा होता है जो वास्तविकता से दूर दर्शकों में ये अहसास बनाये रखता है कि आप कोई फिल्म देख रहे हैं। कमोबेश कैमरे का यही ठहराव उनकी फिल्म की एडिटिंग में भी नजर आता है। जो बेवजह दृश्य को छोटे छोटे भागों में बांटता नहीं है।

फिल्म का साउंड डिजाइन भी दिलचस्प है। फिल्म का मुख्य किरदार एक अव्यक्त अकेलेपन से जूझता बाहरी दुनिया से अनजान एक शख्स है। लेकिन उसकी अपनी दुनिया और बाहरी दुनिया की संधि रेखा पर कहीं फिल्म का साउंड डिजाइन पकड़ता है, जो बाहरी दुनिया के शोर और बाड़ियों को दर्शकों तक पहुंचता है, खासकर उस समय जब कैमरा मुख्य किरदार की डिजाइन दुनिया को समेटने में व्यस्त है।

कहानी बहुत उतार-चढ़ाव से गुजरे बिना कहीं अंतर्मन में खुलती है। जो बरबस निर्मल वर्मा की कहानियों की याद दिलाता है। लाली में यूरोपियन फिल्मों का गहरा प्रभाव नजर आता है, जहां रोजाना की जिन्दगी को एक सिनेमाई सौन्दर्य के साथ देखा जाता है।

फिल्म से गुजरते हुए आप जरूर गमगीन महसूस करेंगे, लेकिन कहीं एक महीन सी जिजीविषा और उस जिजीविषा में मौजूद एक हास्यबोध भी आपको देखने को मिलेगा। फिल्म देखने के बाद किसी शायर की ये पंक्ति याद आती रही -‘तन्हाई रोएगी कि मेरा हमसफर चला गया ‘। लाली फिल्म होते हुए भी रंगमंच देखने का सुख देती है, जहां सत्त्रह में बैठकर आप पंकज त्रिपाठी का एकल अभिनय देखने का रस ले सकते हैं। (डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं।)

ब्लगर के बारे में

मोहन जोशी रंगकर्मी, नाट्यकार

फ्रीलांस लेखक, माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय भोपाल से जन विकल्प स्नातक। एफटीआईआई पुणे से फिल्म रसास्वाद और पटकथा लेखन पाठ्यक्रम। रंगकर्मी, नाट्यकार और इसके अलावा कई डाक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए लेखन व निर्देशन।

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