भोजपुरी स्प्लिट: लोकगीत थाती हा, बाजारू अस्लीलता ना .. पढ़ीं कइसेर्ती बाबा के दौर की बोली


बिसेसर भाई जब तब गीत गवनई लगा के बियाठ जालें। काल्हिसेज़े कुछ गारी लगा के बैठ गैल रहले। ओनके मोबइले में ऊ गाना रहल आ स्पीकर पर चलावत रहले।
फलाने के बहिनी घूमना बजार
कइ के सोलह सिंगार
करत सोलह भतारकहँ एकौ नहीं …।
सुन्नर खेते ओर से आवत रहलें। उनके काने परि गइल ई गीत। रहि ना गइल बेचारे से। पूछिए परले, “का हो हो काका … अगर एहमन ना कौन फुहरई बा त ‘सैंया हमार दनादन्न मारेला …’ में फुहारई कहां से आ गइल?”
“आ तोके बतावतानी अबे ….”, कहत आपन लाठी सम्हारत बिसेसर भाई उठते रहले कि सुनरा आपन तहमद सरियावत हँसत भाग चलल। एहर बिसेसर भाई चिल्लइले .. हरे सुनरा, अरे अइस उसी थोरे तोके रिकॉर्डिंगन भाई छछुँरा कहेलन।
सुनरा के ओकर सग्गे काका छछुनरा काहे कहेले, ई अलगे बाबती बा। बिकर हई जौन नौकी पीढ़ी फूहर पातर भोजपुरी गाँव के लोकगीत समझ लेहले बा आ गारी जइसन लोक के पवित्र थातिन आ रसम रिवाजन के एह फुहारई से तुलना कइले के पाप से ई केकरे कपारे चढ़ी आ ले इई, ई बिचार के एहे अलगे बिसूर बाबरी। । कौनो अंग बिसेस आ रिस्ता बिसेस के नाम ले लेले से कौन बाती अस्लील हो जाले का? अइसन रहत त साला एजद असंसरी घोसित हो गइल रहत। बइकर भइल ना ना!

अच्छा ई सोचीं कि अगर समाज खाली सबद के असलील मनले रहत, या कौन भाव या प्राकृतिक बेग के असलील मनले रहत त एतना नीमन सामाजिक बेवस्था कहाँ से आइल रहत। हमन के खाली नीमन सामाजिक बेवस्था भर ना बनल, एहू में हर तरह के रिस्ता के लिए पुरहर महत्व दिहल गइल। खाली पहर आ दुसरिक ना, इहाँ तक कि तीसरी-चौथी आ पाँचवीं सीढ़ी तक के रिस्तेदारी बदे हमहन लगे अलग-अलग सबद हवें। आ ओहू में बड़ छोट के हिसाब से अलग-अलग। इह खाली आंटी से काम ना चले। काकी, मामी, मौसी, बुआ, बोरकी माई … सब अलगे-अलग फरियावल बा। इहाँ तक कि एक के दूसरेर कहि देहल कौनो अर्थ में गारी मान लिहल जाले आ कौनो अर्थ में उहे मजाक भी होले। केकर कइसे कहल का मनाई, ई ओकरे रिस्ता या ओह रिस्ता के मर्यादा पर निर्भर हो। ऐस ही अंकल आ ब्रदर या सिस्टर इन ला भी इहाँ प्रहार बात ना मनाले। उहो सब रिस्ता इहाँ पाँत-पाँत फरियावल हवे।

ई खाली भोजपुरी समाज के ना, पूरे भारतीय समाज के खूबी हवे। आ पूरे भारतीय समाज में सोहर से लेके गौने तक के गीत पावल जाले। अगर हूओ प्राकृतिक बेग से आ जनम या मरन से केहू के परहेज होत या हमरे समाज के मन में एकरे ओर कौनो निंदा के भाव होत त अइसन का बान होत! जौन प्रकृति के जरूरत आ जनम के हेत हौ, ओके भला बरगल कैसे जा सकेले आ ओके बरजले के जरूरते कौन बाबा! असलीलता ऊ तब होले जब एकर बिबरन मरजाद्लघ के कइल जाले। अस्लील ऊ तब होले जब हँसी-मजाक या कौनो सार्थक संतों दिहला के बजाय मन में गंभीर भाव जगावे के लिए कइल जा रहे हैं। अस्लील कौनो गीत तब जाले जब ओसे लोगन के समाज के मरजाद के खिलाफ उकसावे के कोसिस होके लगे।

अब ऊ चाहे ‘कूल कुर्ती में लगा ल …’ के मार्फत होके आ चाहे ‘अंगोछा बिछा के …’ होखे। अस्लीलता कौनो सबद में ना बसल होले कि जौने के कंप्यूटर वाला की वर्ड लगा के किसो लेख या गीत में से छान लिहल जा रही है। अगर अइसन रहत त संप्रति के तमाम दुस्मन लोग इ ना क पौते। अगर एके कौनो चलनी से चालल जा सकत त सेंसर बोर्ड सिनेमा से सब पहिल उसी फिल लिहल करत। बैकर ई ना हो पावेले। काँय कि हर दुअर्थी संवाद के एगो निमनो अर्थ होले। ई ओकरे प्रयोग कइले के तरीके पर निर्भर होला कि कौन अर्थ अभीष्ट बा। ई खाली एतने पर निर्भर ना होले कि के कहत बा आ कइसे कहत बा। एहू पर निर्भर होले कि केसे कहत बा आ कहाँ कहत बाबा। गितियो के मामले में उहे बा।

गारी भर ना, हर लोक के समाज में नकटा से लेके फगुआ तक कई ठो अइसन पारंपरिक लोकगीत होलान जौने में हँसी मजाक से लेके कुछ खास रिस्तेदारी के लेके मीठी नोक-झोक आ मधुर गाली-गलौज तक होले। एह गाली गलौज में कौनो अस्लीलता ना होले। ईमानदारी के बाति ई हौ कि एहमें ओह समाज के पूरा जीवन संघर्ष छिपल होले। एसे समाज के बिस्तार और उन्नति के साथे-साथे आजकल जौने बिधा के यौन शिक्षा कहल जाला ओकर सामाजिक रूप से बहुत शिष्ट तरीके से सीख भी दे दिहल जाले, एक पारिवारिक जिम्मेदारी निबहले की महिलाएं भी। एह गीतन में यौन उच्छृंखलता के इसारा करेत बाति कहीं-कहीं लउका ली, उहो यौन उच्छृंखलता के महिमामंडित करे खातिर ना होले, बल्कि जीवन में ओकर महत्व बताती जातितिर होले। बियाहे-गवने लायक जवान लइकन के मन में एह सब भावन के लेके अगर कौनो के बेजा संकोच हो तैं डर निकार देवे खातिर होले। मरजादिहीन यौन उच्छृंखलता या किसो तरह के यौन अपराध के लिए उकसावे के लिए ई ना होले। ई सीख देवे के लिए होले। आजकल के कथित बजारू रस्सी से एकर तुलना कइल ओइस ही हवे जैसे सीवर के पानी के तुलना नदी के जल से क दीहल जा रही है।

बिकर बजार आजकल ई कुल करत बाबा बजरधर्मी लोग एके पूरा समर्थन देत बा। ई दुर्दसा आजकल खाली भोजपुरिये के ना होता है। जे जौने भाषा के जानत बा ओसे ओह भाषा के भितर जौन पॉप कल्चर चलत बा, ओकरे बारे में पूछ लीं त पता ई चली कि सबके एक जैसन हाल बा। जेकर बजार बन गइल, समझी लीं कि तेकरे सत्यानास के प्रहार की तैयारी हो गइल। अब ओ चाहे बंगला हो, या मैथिली, या बुंदेली, या हरियाणवी, या पंजाबी, या फिर राजस्थानी या कुछ और। हर भाषा में समझदार लोग एह बाजरू प्रवृत्ति के बढ़ले से परसन बा। दबल अवाज में लोग बोलतो बा त ऊ अनसुना क दिहल जात बा। मूल में एक-दू मनई के बोलला से एकर कुछ होखे वाला नइखे। जरूरत एह बात के बा कि समाज चेत। लोक के वाती आ बजारू अस्लीलता के बीच फरक सभे जन के समझे के परी। तबे कहीं बात बनी। (लेखक सुधार देव सांकृत्यायन जी वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)





Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *