अधिनियम 1978 की समीक्षा: एक अतिरिक्त थ्रिलर है यज्ञ शेट्टी की एक्ट 1978, जरूर देखनी फिल्म चाहिए


मुंबई: नसीरुद्दीन शाह (नसीरुद्दीन शाह) की “अ वेडनेसडे (ए बुधवार)” हिंदी फिल्म के दर्शकों के मन में छपी हुई है। एक आम इंसान जब व्यवस्था से तंग आ जाता है और उसे किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलती है तो वह खुद हथियार उठाने पर मजबूर हो जाता है। बेशरी व्यवस्था को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती ही है। रंग दे बसंती, शाहिद, मदारी, पान सिंह तोमर, और यहां तक ​​कि कोर्टरूम ड्रामा पिंक और मुल्क भी एक आम इंसान की सड़ी गली व्यवस्था और समाज के खिलाफ विद्रोह की कहानी है। कई फिल्में हैं जो इस तर्ज़ पर बनी हुई हैं, लेकिन इन सब में एक नया नाम जोड़ा जाना चाहिए – कन्नड़ फिल्म “एक्ट 1978 (अधिनियम 1978)” का।

एक सरकारी दफ्तर की लाल फीताशाही से परेशान गीता (यगाना शेट्टी) अपने एक बुजुर्ग साथी रिलेaa (बी। सुरेश) के साथ उस कार्यालय में घुस कर बन्दूक और कमर पर बंधे बम की मदद से पूरे कार्यालय को बंधक बना लेती है। एक योग्य पुलिस अफसर को इस केस को सुलझाने का काम दिया जाता है जिसे डायमे धीमे यह एहसास होता है कि गलती सरकार दफ्तर में काम करने वाले घूसखोर कर्मचारियों की है। अपने पति की मौत के बाद गर्भवती गीता, मुआवजे के लिए सरकारी कार्यालय में कामचोर कर्मचारियों के व्यवहार, उनकी घूसखोरी और उनका काम टालने के नए नए तरीकों से त्रस्त हो कर, सभी को बंधक बना लेती है। परत दर परत पूरा मसला सामने आता है, राजनेता और सरकार के लोग, विशेष फोर्स और स्थानीय पुलिस इस केस को सुलझाने में पूरा दम लगा देते हैं।

आखिर में जो होता है, उस क्लाइमेक्स तक पहुंचने में यह फिल्म एक ऐसी सोशल मैसेज दे जाती है जो सभी सरकारी नौकरों को आत्म-मंथन करने पर मजबूर कर देती है। फिल्म की सेटिंग थोड़ी धीमी है लेकिन लेखक संगठननाथ सोमशेखर रेड्डी, दयानंद और वीरेंद्र मल्लना ने फिल्म को बांध कर रखा है। गांधीवादी तरीके से सत्याग्रह करता है एक शख्स फिल्म में रखा गया है जिसके पास कोई डायलॉग नहीं हैं, लेकिन उसका प्रभाव गांधी के समान ही है। कार्यालय में काम करने वाले प्यून, छोटे बब्बू, बड़े बाबू, ब्रांच मैनेजर, विधायक और यहां तक ​​कि बम सप्लाई करने वाले का किरदार भी महत्वपूर्ण है। कहानी लिखते वक़्त इस बात का ध्यान रखा गया है कि कोई अविश्वसनीय बात या सीन न हो, कोई फालतू हुरिज़्ज़्म नहीं हो, कोई ऐसा भूत या डायलॉग नहीं है जो आम आदमी बोलता न हो।

यथार्थवाद स्क्रिप्ट और स्वाद के अनुसार ड्रामा रखे हुए, एक बहुत ही मजबूत फिल्म लिखी गयी है। कन्नड़ सिविल सेवा एक्ट 1978 का रेफरेन्स के बारे में इस ड्रामा को रचा गया है। सरकार के कानूनी सलाहकार, महिला आयोग, मीडियाकर्मी और पुलिस वाले, एक ही घटना को अलग अलग नज़र से कैसे देखते हैं, ये इस फिल्म की सबसे बड़ी ताक़त है।

यज्ञ शेट्टी में सिर्फ दिखने में सुंदर हैं, बल्कि अत्यंत सुंदर भी हैं। पूरी फिल्म उन्होंने अपने कांधों पर खींची है। एक गर्भवती महिला का किरदार बखूबी प्लेया है। उनके चेहरे का घर्षण, हम सबने कभी न कभी महसूस किया है। उनकी बेचारगी, साफ नजर आती है। इतना बड़ा गैर कानूनी कदम उठाने के पहले उनकी सोच भी बड़ी ही संयत तरीके से दिखाई गयी है। एक आम आदमी कभी कोई ऐसा कदम बिना मदद के नहीं उठा सकता है और इसलिए पटकथा लेखन को बहुत ध्यान से सोच कर दृश्य लेखन की जीत दी जानी चाहिए। छोटे से छोटे रोल का अपना महत्त्व है और उसके लिए एक्टर भी बिल्कुल माकुल चुना हैं।

फ़िल्म के निर्देशक का नाम मासो रे हैं जो की लेखक संगठननाथ सोमशेखर रेड्डी का ही निक नेम है। एक्ट 1978 से पहले उन्होंने नतिचरामि और और हरिवू (प्रदर्शन कन्नड़ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार) नाम की दो फिल्में निर्देशित की हैं और कई प्रतिष्ठित भी जीते हैं। असाधारण कहानियों पर फिल्म बनाना उन्हें पसंद है। एक्ट 1978, सरकारी कार्यालयों के अपने निजी अनुभवों से प्रेरित है। तारीफ के योग्य हैं फिल्म के सिम्मेटोग्राफर सत्य हेगड़े, जिन्होंने सरकारी कार्यालय जैसी ही शूटिंग में शूटिंग की और एक एक कोने का इस्तेमाल बखूबी किया। एडिटर नागेंद्र ने जान बूझ का फिल्म की गति कम ही रखी है। कुछ दृश्यों में तो आँखों में आंसू रोकना मुश्किल हो जाते हैं।

लॉकडाउन खुलने के बाद सिनेमा हॉल में रिलीज होने वाले पहले कन्नड़ फिल्म थी एक्ट 1978 जो अब सोनीॉन प्राइम वीडियो पर देखी जा सकती है। एक अतिरिक्त थ्रिलर है। कोई जादू नहीं है, कोई फालतू का हुरक एक्ट नहीं है, कोई असंभव घटना नहीं है, कोई अजीब वाकया नहीं है। इस फिल्म को देखा जाना चाहिए। सबटाइटल अंग्रेजी में हैं। भाषा की मोहताज नहीं है ये फिल्म।





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