
पावर प्ले एक रोमांटिक फिल्म की तरह शुरू होता है जहां। विजय (राज तरुण) को अपनी गर्लफ्रेंड कीर्ति (हेमल इंग्लेक्स) से शादी करनी है। घरवाले मान जाते हैं। शादी से पहले वे एक बार डिस्को जाने का प्लान बनाते हैं और विजय, एक एटीएम से पैसे निकाल कर लाता है जो कि नकली नोट निकलते हैं। यहीं से कहानी में ट्विस्ट शुरू होता है। चीफ मिनिस्टर की विधायक बेटी और उनके पति का ड्रग्स बिज़नेस, बैंक मैनेजर से जोड़ तोड़ कर एटीएम में असली की जगह नकली नोट भरवाना, चीफ़ मिनिस्टर की बेटी के एक स्पोर्ट्स टीचर से अवैध संबंध और फिर टीचर की हत्या की एक दुकान के सीसीटीवी में रिकॉर्ड हो जाओ, दुकानवालों ने उन्हें ब्लैकमेल करना, और विजय के हाथों को रिकॉर्ड करना है।
ऐसी सभी बातों के बाद राज़ पर से पर्दा फाश होता है और विजय पर नकली नोट के कारोबार का लांछन हट जाता है और उसकी शादी हो जाती है। फिल्म इलाबी है। बहुत सारे सब प्लॉट्स हैं लेकिन सभी किसी न किसी तरह आपस में जुड़े हुए हैं। निर्देशक विजय कुमार कोंडा की खासियत मानी जाएंगी कि उन्होंने हर सब प्लॉट के साथ न्याय किया है और उनकी रचना और कहानी में उनकी जगह कुछ तरह महफूज़ कर रखी है कि परत खुलने पर शॉक के बजाये, दर्शकों को मज़ा आता है।
फिल्म की शुरुआत में एक एक्सीडेंट होता है जिसमें मरने वाले एक बड़े पुलिस अधिकारी का ड्रग्स कैरेक्टर बेटा होता है, जिसके पैसे चुकाने के लिए एटीएम में नकली नोट भर कर असली निकाले जाते हैं। फिल्म में विजय को एक एक एपिसोड ढूंढने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। एक पार्ट टाइम डिटेक्टिव के साथ मिल कर वो एटीएम जाने का और वहां से पुलिस द्वारा पकडे जाने तक का सफर याद करते जाते हैं और गुत्थी सुलझती चली जाती है। एक आम आदमी को किस तरह की दिक्कतें आ सकती है इस तरह की छानबीन करने में, ये बखूबी दिखाया गया है।
अभिनय में राज तरुण और शेफ मिनिस्टर की बेटी के रोल में पूर्णा ने बहुत बढ़िया अभिनय किया है। बाकी अभिनेत्रियों ने भी अच्छा काम किया है। कलाकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है लेकिन सबने अपने किरदारों को जस्टिफाई किया है। फिल्म की कहानी और डायलॉग नंदयाला रवि ने लिखे हैं और पटकथा खुद निर्देशक विजय कुमार ने लिखी है। विजय ने इसके पहले सिर्फ रोमांटिक फिल्म्स बनायीं हैं और पावर प्ले उनके लिए पहले थ्रिलर है इसलिए पटकथा और सभी प्लॉट्स का विस्तार कुछ ज्यादा हो गया और कहानी थोड़ी धीमे चली गई है। सब प्लॉट्स की वजह से थ्रिल आता है लेकिन अपने सर्वोच्च पर नहीं पहुंच पाता। फिल्म एक कमर्शियल सिनेमा है, उसके हिसाब से फिल्म में ड्रामेटिक मोमेंट्स की सख्त कमी है।
डायरेक्टर माँ खा गए हैं, ये बात नज़र आती है। इसके लिए दोषी फिल्म के एडिटर प्रवीण पुदी भी हैं। प्रवीण ने लगभग 50 से ज्यादा फिल्में एडिट की हैं लेकिन उनकी शैली है पूरी दृश्य रखने का जो कारण से फिल्म की गति धीमी हो जाती है। आसानी से 15 मिनिट की फिल्म कम हो सकती थी। सिमोटेटोग्राफर आय एंड्रू का काम ठीक है। रात के कुछ दृश्य अच्छे से फिल्माए गए हैं। फिल्म का संगीत (सुरेश बोबिली) अच्छा है। रोमांटिक गाने भी ठीक बने हैं लेकिन फिल्म की स्पीड कम कर देते हैं। एंस अच्छा है।
लेखक, निर्देशक और एडिटर, तीनों ही फिल्म बनाने में एक बहुत बड़ी गलती कर बैठते हैं। लेखक और निर्देशक, हर सीन को जस्टिफाई करने के चक्कर में सब प्लॉट रचते जाते हैं। एक बूम उपयोग, चतुराई से रची फिल्म के बजाये, एक एलबी सी फिल्म देखने को मिलती है जो बोरिंग लगती है। पावर प्ले में ये बात बहुत उभर कर आती है। एक बढ़िया क्राइम थ्रिलर, हर किरदार की उपयोगिता साबित करने में व्यस्त हो जाता है। फिल्म देखने की जरूरत क्योंकि कम बाधाओं के बावजूद, फिल्म अच्छी बन गयी है। कम से कम हिंदी फिल्मों से तो बेहतर ही है।