
यूं तो फिल्मम निर्माण एक टीम वर्क की तरह होता है जिसमें अलग-अलग विषय के विशेषज्ञ अपना काम करते हैं। रे की फिल्मेंम रचना इस परिपाटी को नहीं मानती और इस धारणा को धवस्त करती है। उनकी पहचान महज़ एक फ़िल्मम निर्देशक के रूप में नहीं है। फिल्मोंम तकनीक से जुड़े लगभग सभी प्रमुख कामों में वे नायक थे। वे पटकथा लिखते थे, पार्षव संगीत रचते थे। वे कास्ट डायरेक्टर थे, अपने अभिनेता खुद ढूंढते हैं और काम का प्रदर्शन भी करते हैं। कैमरों के संचालन में वे सिद्धहिस्ट थे, कला-निर्देशन वे खुद थे। संपादन टेबल पर उनकी पृष्ठभूमिएं विश्वनीय अंदाज़ में मूव करती थीं, प्रचार सामग्री की रचना भी वे खुद ही करते थे।
हो सकता है कि आप उनके बारे में कुछ जियादा ही उठ चढ़ाकर बात की गई है, लेकिन जब आप अचिरा कुरोसोवा का ससीजीत रे के बारे में कथन सुनेंगे तो इसे कमतर ही मान लेंगे। वे कहते हैं- ‘रे का सिनेमा ना देखना इस अवतार में सूर्य या चन्द्रमा को देखने के बिना रहना के समान है।’ जापान के अकीरा कुरोसोवा के जिक्र के बिना दुनिया के फिल्मी जगत का उसससा पूरा नहीं होता है। वे सिनेमा के सबसे जियादा प्रतिष्ठित और सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार थे।
बात यहीं ख्रेडम नहीं होती ससजीत रे फिल्म्स बनाने के अलावा और भी कई रचनाकृतिक कार्य लगे हाथ निपटाते रहते थे। मसलन वे कहानीकार, रचनाकार, पत्रिका संस्करण, प्रकाशक और चित्रकार थे, फ़िल्मम आलोचक भी। फिल्मोंमों के अलावा उन्होंने उन्होंने श्रेयित चित्र भी बनाए रखा। मुहावरे की भाषा में कहें तो कह सकते हैं ‘सत्जीत रे इतनी फिल्मेंमी थे कि वे इसी को बिछानेाते थे, इसी को ओढ़ते थे और इसी को पहनते थे। उनकी दुनिया फ़िल्मम से शुरू होती थी और फ़िल्मम पर ही ख्रेडम हो जाता था। ‘
फोटो साभार- @ Rubaiat_Nahian / ट्विटर
आकर्षक पाठ यह है कि उनके केरियर की शुरूआत फिल्मोंमों से नहीं हुई। हां वे एक रचनाकृतिक परिवार से संबंध जरूर रखते थे। जब वे तीन साल के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया। उनकी मां ने उन्हें मुश्किल से पाला। उन्हें उन्होंने कोलकाता से अर्थशास्त्रा की डिग्री ली और माँ के अनुरोध पर रवीन्द्र नाथ टैगोर के विश्व भारती विश्वविद्यालय में भी पढ़े। लेकिन शांतिनिकेतन के बुद्धिजीवी जगत से अप्रभावित रहे।
नौकरी की शुरूआत ब्रिटिश विज्ञापन कंपनी कैमर में जूनियर विज़ुइल्जर के रूप में की। यहां उन्हें महीने के बस अस्सी रूपए मिलते थे। जल्दी ही इसे छोड़कर वे एक अध्यक्ष के साथ काम करने लगे। यहां वे किताबों के मुखपृ और निर्मित किए गए थे। इस दौरान उनके पास जिम कार्बेट की कुमायूं और जवाहर लाल नेहरू की डिस्कवरी, भारत के मुखपृक्ष की खातिरदारी की। यहां उनकी मुलाकात विभेदक भूषण बंधोपाध्यायय के प्रसिद्ध बंगला उपन्यस्य ‘पाथेर पांचाली’ से हुई। इसके बाल एकीकरण पर उन्होंने काम किया और बाद में इस पर उन्होंने अपनी पहली फीचर फिल्मम बनाई। इसी की श्रद्धा की अगली फ़िल्में अपराजितो थी। बाद में दो फ़िल्में बनाने के बाद उन्होंने उन्हें अपु त्रयी की रचना की और श्रद्धा की अंतिम फ़िल्मम अपूर संसार बनाया। अपु यानि पाथेर का मुख्य पात्र। ‘पाथेर ..’ 1955 में सामने आए, और अपूर 1959 में बने रहे ।पथर पांचाली बहुत मुश्किलों के बाद पूरी तरह से मिल गई थी। 1952 में शुरू हुआ छायांकन तीन साल तक चला। जब रे के निर्माण प्रबंधक अनिल चौधरी पैसों का जुगाड़ करते हैं तब फिल्मेंम शुरू होती हैं, पैसे ख्रेडम होते हैं केवल फिल्मम रूक जाता है। जिद्दी रे ने ऐसे पैसों के शत्रोत को ठुकरा दिया जो कथानक में परिवर्तन चाहते थे और उनकी रचना प्रक्रिया में हस्तक्षेपशील देना चाहते थे। बाद में बंगाल सरकार के ऋण से फिल्मोंम पूरी तरह से हुई। सत्जीत रे ने सरकार से पैसे तो लिए पर उनके सुझावों को नहीं माना। फिल्मोंम को आलोचकों की बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली, छिटपुट आलोचनाओं को भी। अपराजितो की सफलता के बाद तो ससीजीत रे के नाम का डंका दुनिया भर में बज गया।
ये तब बड़े लोगों की बातें अब छोटे और सामान्यजन की प्रतिक्रिया पर गर्व करते हैं। किस्सा एक दो जाति की उसके पुत्र से जुड़ी है। जो उसने मुझे घटना के दूसरे दिन सुनाया था। बात पुरानी है उन दिनों भली फ़िल्में या तो फ़िल्मम स्पोन्स में देखने को मिलती थीं या दूरदर्शन पर। दूरदर्शन पर सपनाह या दस दिन का एक आयोजन हुआ था जिसमें हर रोज सत्जीत रे की फिल्मेंम दिखाई जा रही थीं। फिल्मोंम नौ बजे के आसपास शुरू होता था और विज्ञापनों के कारण देर रात तक ख्रेडम होता था। ऐसी ही एक रात थी। किस्सा दोयम के शब्दों में – ‘दूरदर्शन पर फिल्मेंम शुरू ही होने वाली थी। मेरा बेटा तब सातवीं जमात में पढ़ता था। उन दिनों उसके शकुल के छ: माही एक्टम चल रहे थे। छ:: दूसरे दिन सुबह थी। वह अपने पास बैठकर अपनी पढ़ाई कर रहा था।
नौ बजे सत्जीत रे की फ़िल्मम शुरू हुई। फ़िल्मम ‘गुपी गाईन बाघा बाईन’ थी। फ़िल्मम बंगला भाषा में थी। मैं फिल्मोंम में डूब गया, बेटे की तरफ मेरा ध्यान नहीं था। घंटे भर बाद मैंने पाया कि बेटा पढ़ा नहीं जा रहा है लेकिन पूरी तन्मयता से उस भाषा की फिल्मोंम देख रहा है जो उसे बिलकुल नहीं आता। मैं दंग रह गया, वो फिल्मम को इतना डूब कर देख रहा था कि मेरी हिम्मत नहीं हुई कि उसे फिलम देखने से मना करूं और पढ़ने को कहूं, बावजूद इसके कि उसकी फिल्म की शूटिंग एक्टम थी। उन्होंने रात लगभग 12 बजे तक पूरी फिल्म देखी। ‘
तो ये सत्जीत रे की फिल्ममों का जादू था। ये उनका कम ही कहा जाएगा कि एक छोटा सा कैंचा जिसे फिल्म्स की कोई खास समझ नहीं है, वह एक अनजान भाषा की फिल्मेंम ना सिर्फ पूरी देखता है बल्कि उसमें डूब जाता है। वैसे रे मसाला फिल्में नहीं बनतीं, लेकिन ‘गुप ….’ फेंटेसी, एडवेंचर और कॉमेडी फिल्मम थी। शायद ब्रेशे के देखने के पीछे यह भी कारण हो सकता है, लेकिन यह रे का कम नहीं होता है। बाद में इसके सिक्वेल भी बने।
रे की फिल्मेंमों को एपिसोड आलोचना भी झेलना पड़ी हैं। आलोचकों के अनुसार उनकी फ़िल्में बहुत ही धीमी गति से चलती हैं। रे ने माना कि इसकी गति पर वे कुछ नहीं कर सकते। यहां भी उनके बचाव में उनके खास चेहरे कुरोसोवा आते हैं और कहते हैं कि यह धीमी गति से नहीं बल्कि विशाल नदी की तरह शांति से बहने वाली गति है। उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि वे भारत की गरीबी का खुलासा करते हैं।
उनके अंतिम दिनों में फ़िल्में पूर्व की तरह बेहतर नहीं थीं और मानी बन गईं। बीमारी के कारण ये उनकी शैली से अलग तरह की गढ़ी बन गई। इनमें गणेशत्रु, प्रशाखा ओर चित्र शामिल थे। उन्हें लगभग 32 फ़िल्मों का निर्देशन किया। देवी ओर चारुलता उनकी बेहतर फिल्म्स में शामिल थीं। हिंदी में बनी उनकी फ़िल्मम ‘शतरंज के खिलाड़ी’ को भरपूर प्रशंसा मिली।
फिल्मोंम निर्माण की कला उन्होंने कहा कि भले ही फ़िल्में देखकर सीखीं लेकिन उनकी तकनीकी क्षमता में र्रेडति भर भी कमी नहीं निकाली जा सकती। कैमरा और लाइट पर उनकी पकड़ बेमिसाल थी। उनकी फिल्ममों का बजट कम होता था इसलिए उन्होंने नेचरल लाइट प्रफर करते थे। वैसे भी वास्तविकता पर उनका सबसे ज्यादा ध्यान रहता था।
रे को भारत सरकार की ओर से अनेकानेक अवसरों पर प्रचारकों से नवाज़ा गया है। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद उपाधि से सम्मानित किया। भारतीय फिल्मोंम जगत का सबसे प्रमुख सममान दादा फाल्के उन्हें मिले। आस्कर में उनकी कोई भी फिल्मम नामित भले ही ना हुई हो लेकिन 1992 में उनहें आस्कर का सबसे सममाननीय लाईफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया। रमेमी अवार्ड के सदसय इस पुरस्कार को देने वाली कल आए थे, औसकि रे बीमार थे और अवार्ड लेने वाले नहीं थे। सत्जीत रे ने भारतीय फिल्मोंमों को अपनी पहचान दिलाई, देश को दुनिया भर में प्रतिमाह दिलाई। वे भारत के सत्चे रेदन थे। उनहें ‘भारत र्रेडन’ से नवाज़ा गया, इसके वे सच्छे और वास्तविक पात्र थे।
शकील खानफिल्म और कला समीक्षक
फिल्म और कला समीक्षक और स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेखक और निर्देशक हैं। एक फीचर फिल्म लिखी है। एक डाक टिकट जिसमें कई डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं।