हालांकि लंबे इंगार के बाद दीपावली के अगले दिन ‘सूरज पे मंगल भारी’ रिलीज तो हुई, लेकिन मुट्ठीभर दर्शकों के आने से सिनेमाघर स्टाफ के चेहरे फिर से मुरझाते दिख रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में 10,948 करोड़ रुपये खर्च कर भारतीय सिने दर्शकों द्वारा 1.03 बिलियन सिनेमा टिकट खरीदे गए थे, जबकि एक अनुमान के अनुसार छह विभाजित होने के कारण छह महीने तक सिनेमाघरों के बंद रहने से उद्योग को लगभग 1.2 बिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है। है।
इस लिहाज से मौजूदा हालात में सिनेमा कारोबार से जुड़े लोगों का सदमें में आना लाजमी है। हालांकि एक ओर नई फिल्मों की आवक पर ब्रेक सा लगा हुआ है और दर्शक भी फिल्म देखने नहीं आ रहे हैं तो दूसरी ओर कुछेक नए-पुराने मुद्दों को लेकर फिल्म प्रदर्शकों, फिल्म, निर्माताओं और सिनेमाघरों के बीच पनपी असहमतियों के बीच अब तकरार – बदलाव भी दिखेंगे हो रहे हैं।
इसमें दो राय नहीं है कि कई अन्य क्षेत्रों की तरह सिनेमा उद्योग भी कोरोना के कहर खामियाजा भुगत रहा है और काफी हद तक पर्यटन क्षेत्र की तरह सबसे ज्यादा नुकसान इस क्षेत्र को ही उठाना पड़ रहा है। लेकिन यह भी देखने में आया है कि विभिन्न चरणों में भारत की प्रक्रिया के बाद कई क्षेत्रों में, निश्चित रूप से पहले की तरह न सही लेकिन कामकाज सामान्य हो गया है। पर्यटन, खान-पान, रेस्तरां, मॉल आदि क्षेत्रों में जीवन पटरी पर लौटती दिख रही है। लेकिन सीनेट स्क्रीन सिनेमाघर, मल्टीप्लेक्स चेन और इससे जुड़े लोग अब भी विकट परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं।
तो क्या केवल कोरोना के डर के कारण ही इस क्षेत्र में स्थितियां सामान्य नहीं हो पा रही हैं? या दर्शकों के सिम्माहाल न आने का कोई और भी हो सकता है? कहीं सिनेमा जगत के लोगों के आपसी झगड़े ही तो मौजूदा परिस्थितियों पर हावी नहीं हो गए हैं?
नई फिल्मों की कमी और दर्शकों की बेरुखी
कोरोना परिस्थिति के बीच 16 अक्टूबर को सिनेमाघरों का फिर से खुलना किसी खुशखबरी से कम न था। पुरानी फिल्मों के जरिये दर्शकों को प्रोत्साहन देने की कवायद शुरू हो गयी थी। दिल्ली जैसे शहर में शुरू में ही 300-400 रुपये की टिकट 99 रुपये तक कर दी गई, लेकिन दर्शकों की भीड़ फिर भी जुटी नहीं। हालांकि दर्शकों की बेरुखी इस बात को लेकर बाद तक बनी रही कि कई हफ्ते बाद भी कोई नई या बड़ी सितारों वाली फिल्म रिलीज नहीं हुई। लेकिन ये तो शुरूआत से ही यह साफ था कि आने वाले एक-दो महीनों तक ज्यादातर चर्चित या बड़ी फिल्में जैसे अक्षय कुमार की फिल्म लक्ष्मी, अनुराग बसु की लूडो, हंसल मेहता निर्देशित छलांग, तैयश, दुर्गावती और दि बिग बुल आदि ओटीटी मंच पर ही रिलीज होगी। बावजूद इसके कुछेक फिल्में जैसे इंदु की जवानी, ट्यूजडेज और फ्राइडेज, सूरज पे मंगल भारी, संदीप और पिंकी फरार, बंटी और बबली 2 और क्रिस्टोफर नोलन्स की अंग्रेजी फिल्म टेनिट की रिलीज के बाद यह उम्मीद बन रही थी कि सिनेमाघरों पर फिर से बहार लौट सकेगी। । लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सिनेमाघरों में पुरानी फिल्में ही दिखाई जाती हैं, जिनके दर्शकों में रत्तीभर भी उत्साह नहीं था।कुछ कहना चाहते हैं कि खाली स्थान हैं
आखिरकार लंबे इंतजार के बाद वह दिन भी आ गया जब कोरोना महामारी के बीच 15 नवंबर को फिर से कोई नई हिंदी फिल्म सिनेमाघरों की शान बढ़ा रही थी। लेकिन दर्शकों का रिस्पांस, ट्रेड की भाषा में कहें तो बिल्कुल ठंडा था। यही कारण है कि 50 प्रति क्षमता के साथ, देशभर में लगभग 700 स्क्रीन्स पर रिलीज की गयी ‘सूरज पे मंगल भारी’ की ओपनिंग केवल 75 लाख रुपये के साथ हुई। अगले दिन यानी भाई दूज से फिल्म का कलेक्शन गिरने लगे और पांच दिनों में यह लगभग 2.20 करोड़ रुपये ही प्राप्त हुई। हालांकि सामान्य परिस्थितियों में ऐसी हल्की-फुल्की फिल्म औसत कमाई के बावजूद ठीकठाक कलेक्शन कर लेती है। लेकिन कोरोना के कारण न केवल भारत में, बल्कि पूरी दुनिया में फिल्मों के कलेक्शन्स पर गाज गिरी है।
दरअसल, दर्शकों के बगैर आठ महीनों तक मजबूरन सोती रही सिनेमाघरों की सभाओं की डिसिन् इफेक्टैन्ट स्प्रे ‘की सोवियत से भड़भड़ाकर उठ तो गयी हैं, लेकिन पुरानी फिल्मों के कारण उपजी दर्शकों की गैर मौजूदगी ने उन्हें फिर से ऊहने पर मजबूर कर दिया है। फट्टे हो या रैक्सीन की, या फिर आरामदायक रेक्लाइनर ही क्यों न हो, बिना ऑडियंस के लाख रुपए की सीट का भी कोई मोल नहीं है। इसलिए इन सीटों को इंतजार है तो बस सिनेमा के उन सलोने पंछियों का जिनके लिए सिनेमाघर में बैठकर फिल्म देखना किसी दीवानगी से कम नहीं है। लेकिन कोरोनाचल में महीनों तक घरों में बंद रहने के बाद डर के साये में बाहर निकले इन सलोने पंछियों की हालत भी अब पहले जैसी नहीं रह गयी है।
चेहरे, शुद्धता, शील्ड, दो यार्ड की दूरी, तरह-तरह की एहतियात-पाबंदियों के साथ फिल्म देखने, जंग पर जाने जैसा है। यूं भी लंबे समय तक पिजरे में रहने के बाद पंछी को फिर से उड़ान में भरने में कठिनाई तो होती है। लेकिन जब खुले आसमान में वह अन्य पंछियों को उड़ते देखता है तो उसके पंखों में खुद ब खुद जान आ जाती है। हो सकता है कि नई फिल्मों की आवक से दर्शक रूपी ये सलोने पंछी भी फिर से सिनेमाघरों की सीटों पर बैठें। लेकिन इसके लिए कुछ उत्साहवर्धक प्रयासों की भी सख्त जरूरत है, जो वर्तमान में तो दिखाई नहीं दे रहे हैं।
जरूरत तो आन पड़ी है
जाहिर तौर पर दर्शकों को सिनेमाघरों तक वापस लाने के लिए कुछ करना होगा। चूंकि लंबे समय बाद सिनेमाघर वालों में पहली फिल्म मनोज बाजपेयी की रिलीज हुई थी, सोती भी उन्होंने ही की। इस उद्देश्य से कि लोग थिएटर की ओर कूच करेंगे, उन्होंने # चलोसिनेमा के साथ एक मल्टीप्लेक्स के बाहर प्रवेश के लिए दर्शकों की कतार का वीडियो साझा किया। सिम्माहाल के भीतर से खुद की एक फोटो शेयर कर उनके साथ दिलजीत दोसांझ और फातिमा सना शेख ने दी है। अच्छा होता है कि मिनट-मिनट में ट्वीटियाने वाले कथित नए और पुराने सितारे इस हैशटैग को ट्रैंड करवाने में मददगार साबित होते हैं, लेकिन उनकी प्राथमिकताएं शायद कुछ और ही रहती हैं।
खैर, इधर-उधर की बातें, वगैरह वगैरह … मालदीव के दिलकश समुद्री जानवरों के जवाबों को मानने जोड़ा तिराइयों की जोड़ी फोटोज तो आ रही थीं। लेकिन # चलोसिनेमा को लेकर जोश ठंडा था। इस बीच अचानक आमिर खान अपनी बेटी ईरा के साथ मुम्बई के एक सिनेमाघर में 17 नवंबर की शाम को फिल्म देखने पहुंच गए। इस बारे में किया गया उनका एक ट्वीट बताता है कि लंबे समय के बाद फिर से सिनेमाहाल्स में फिल्म देखने को लेकर वह कितनी उत्सुक थीं। मनोज बाजपेयी ने बिना देरी किए उनका शुक्रिया भी अदा किया।
उधर, दर्शक दीर्घा से भी बहुत सारे श्रोता अपने अनुभवों को साझा करते दिखते हैं। दर्शकों द्वारा शेयर की गयी फोटोज, वीडियो और संदेश देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि वे सिम्माहाल में फिल्म देखने को लेकर अपनी दीवानगी दर्शाने में कभी कंजूसी नहीं करते। फिल्म इंडस्ट्री भी दर्शकों को ही माईबाप मानती है। बावजूद इसके मनोज, दिलजीत, फातिमा और आमिर के प्रयासों से कोई खास बात नहीं दिखती। फिल्म बिरादरी की ओर से कोई जोश जगाने वाला हैशटैग, कोई हरकत या आहट नहीं हुई, जिससे पता चलता है कि यह मुश्किल वक्त में वे भी बाकी लोगों के साथ हैं।
नई सभ्यताओं के साथ पुराने झगड़े
निर्माता, निदेशक, प्रदर्शक और सिनेमाघर वालों के आपसी टंटे यूं तो चलते ही रहते हैं। एक आम रिंगटोन ऐसी बातों पर तब तक ध्यान नहीं देता जब तक कि नई फिल्मों की प्रस्तुति न रोक जावे, लेकिन इस बार तो कड़वाहट इतनी बढ़ गयी है कि कोरोना भी बौना दिखाई दे रही है। इसी तरह ये परिस्थिति लॉकडाउन के साथ ही शुरू हो गई थी, जब कोरोनाइस की वजह से जब गुलाबो सिताबो, गुंजन सक्सेना: दि कारगिल गर्ल, शकुंतला देवी, दिल बेचारा सरीही फिल्में ओटीटी – रिलीज कर दी गयीं तो मल्टीप्लेक्स संगठन ने कड़ा ऐतराज जताई थी। उनका कहना था कि लॉकडाउन के चलते देशभर के सिनेमाघरों को हर महीने 80-90 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है।
हालांकि कोरोना के दूरगामी परिणामों को देखते हुए स्थितियां सामान्य होने के इंतजार के मद्देनजर सिनेमाघरों से ओटीटी पर शिफ्ट होने को लेकर निर्माताओं के अपने तर्क थे, जिसका विस्तृत ब्योरा फिर कभी। हां, ये जरूर है कि एक तरफ सिनेमाघर वाले स्थितियां सामान्य होने के साथ सिनेमाहाल्स खुलने का इंतजार कर रहे थे तो दूसरी तरफ वे फिल्म निर्माता, जिनकी फिल्मों की रिलीज को विभाजित के कारण टाल दी गयी थी, का सब्र का बांध रहा था। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि बड़े मल्टीप्लेक्स चेन, फिल्म और निर्माताओं के बीच प्रोफाइल प्रतिशत को लेकर मची नई खींचतान और नई फिल्म के डिजिटल प्रसारण (इलेक्ट्रॉनिक्स एंड ओटीटी आदि) की अवधि को कम करने (8 सप्ताह से 2 या 4 सप्ताह) करने) को लेकर शुरू हुए रार के बीच सिलेक्शन स्क्रीन और छोटे मल्टीप्लेक्स वाले खुद को बेवजह पिस होने के मान रहे हैं। यहाँ एक अन्य समस्या वर्ग प्रिंट फीस (वीपीएफ) को लेकर भी चल रही है, जिस पर कुछेक प्रतियोगियोंियों ने तो रखा है, लेकिन वे इतने कुशल साबित होते हैं, बाकी देखते हैं।
मोटे तौर पर अलग-अलग विषयों को लेकर तमाम मंचों के बीच तकरार की खाई दिनों दिन बढ़ती जा रही है, जिसमें से शायद आने वाले दिनों में सीलिंग स्क्रीन और छोटे मल्टीप्लेक्स वाले खुद को अलग करना होगा। हालाँकि इस पूरे सिस्टम में बड़े मल्टीप्लेक्स चेन का महत्वपूर्ण रोल है और दबदबा भी है, लेकिन मौजूदा सूरत यही बनी हुई है कि जब तक नई फिल्मों की आवक के साथ सिनेमाघरों, मल्टीप्लेक्सों, सिनेमा, प्रदर्शकों के आपसी झगड़े नहीं टिकेंगे, तब तक सिनेमाघरों पर फिर से। से बहार लौटनी मुश्किल है।