एक तरह की सामग्री और विषयों का दोहराव, कहीं बॉलीवुड की सबसे सस्ती कॉपी न बन जाए ओटीटी

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मुंबई। एक ही विषय पर कई फिल्में बनाते हैं बॉलीवुड (बॉलीवुड) की पुरानी बीमारी। किसी ताजा मुद्दे को झपटने की हड़बड़ी, भूली बिसरी कहानियों में फिर से प्राण फूंकना और समकालीन विषयों को बाजार के नजरिए से भांपते हुए चतुराई से लपकना, आजकल यहां एक नया बन ट्रेंड गया है। यह भी एक कारण हो सकता है कि परंपरागत फॉर्मूलों से परे जाकर कुछ नए करने की हिम्मत और जोखिम उठाने वाले फिल्मकार-निर्माता अब अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।

ऐसा नहीं है कि यह बातें यूं ही जेहन में उतर में आयीं या सोशल मीडिया पर बॉयकाट बॉलीवुड (बॉलीवुड) से जुड़ी कोई हैशतैग देख बैठे-बैठे कुछ सूझ गया। दरअसल, बॉलीवुड के बारे में कम, बल्कि इंटरटेन्मेंट बिरादरी में शामिल हुए युवा सदस्य ओटीटी (ओटीटी) की ज्यादा है, जिसने कोरोनाकाल में भारतीय दर्शक वर्ग के एक बड़े हिस्से पर अपनी पकड़ पहले से और ज्यादा मजबूत ली है।

बीते कुछ वर्षों में सेक्रेड गेम्स, मिर्जापुर, ब्रीद, शॉर्टकट्स, इनसाइड एज, गूल, मेड इन इवान, लिल थिंग्स की कामयाबी से यह दिखने लगा था कि कंटेंट और फिल्म मेकिंग की नई परिभाषा के साथ बॉलीवुड के समानांतर एक नया मंच तैयार हो रहा है। है। और फिर लॉकडाउन में जब सिनेमाघर बंद थे तो ओटीटी मंच की भूमिका व्यापक रूप से देखी गई और महसूस भी की गई।

लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि ओटीटी भी बॉलीवुड की राह पर न चल रहा है। वे इसलिए भी कि स्टार्ट में ओटीटी के अलग-अलग मंचों के लिए वेब सिरीज, फिल्में, डाक्यूमेंट्रीज वगैराह बनाने वालों में ज्यादातर नए लोग थे, या वे जो अच्छे अवसरों के लिए लंबे समय से उद्योग में संघर्ष कर रहे थे। फिर धीरे-धीरे वही सब लोग लोग खिंचते चले आये, जिन फिल्मों के मामले में हमेशा से यही लगता रहा है कि ‘पब्लिक वही सब तो देखना चाहती है’।कई बार बहुत अच्छे कंटेंट पर भी लोगों के नजरिए को नहीं पड़ना चाहिए
जनता क्या देखना चाहती है, ये बात कोई मशीन नहीं बताती और न ही कोई पुख्ता तौर पर यह कह सकती है कि लोग फलां चीज ही देखना पसंद करेंगे। और सोशल मीडिया के इस दौर में तो और बहुत कठिन होता जा रहा है। क्योंकि कई बार बहुत अच्छे कंटेंट पर भी लोगों का नजरिया नहीं टूटता। खैर, मुद्दे पर आते हैं। इन दिनों हर्षद मेहता कांड की फिर से बहुत गूंज है, क्योंकि इन दिनों सोनीलिव पर वेब सिरीज की स्कैम 1992: दि हर्षद मेहता स्टोरी की रिलीज हुई, जिसे खासी वाहवाही मिल रही है। इसमें दो राय नहीं कि सिरीज में दम है। दूसरी ओर इसी विषय पर अभिषेक बच्चन की फिल्म ‘दि बिग बुल’, मल्टीमीडिया + हल्स्टार पर रिलीज के लिए तैयार है। पर इसी वर्ष फरवरी में रिलीज़ ‘दि बिग बुल ऑफ ब्रोकर स्ट्रीट, भी तो इसी विषय पर आधारित एक वेब शो था।

आगे-पीछे एक ही विषय पर, एक ही मंच पर तीन-तीन कंटेंट? ऐसा क्या घोर आदर्श या रहस्य है इस विषय में? कहीं यह बड़े परदे की तरह ओटीटी पर भी भेड़चाल की शुरूआत तो नहीं है? साल 2015 में चार्ल्स शोभराज पर बनी फिल्म ‘मैं और चार्ल्स’ में रणदीप हुड्डा ने चार्ल्स की मुख्य भूमिका निभाई थी। अब चार्ल्स शोभराज पर दो वेब सिरीज बन रहे हैं। बीबीसी और नेटफ्लिक्स ‘दि सेर्पेन्ट’ नामक आठ नंबर की वेब सिरीज बना रहे हैं, जबकि इसी विषय पर जी 5 के लिए ‘सिनक’ नामक सिरीज फारुख ढोंढी लिख रहे हैं।

हो सकता है कि आने वाले दिनों में किसी नामचीन सितारों के साथ चार्ल्स पर एक और फिल्म की घोषणा हो जाए। दो-दो सिरीज बन रही हैं, तो फिल्म क्यों नहीं। आखिर कोई तो वजह रही होगी जो ‘रुस्तम’ (2016) के बाद एल्टबालाजी और जी 5 पर ‘दि वर्डिक्ट – स्टेट वर्सेज नानावटी’ (2019) वेब सिरीज देखने को मिली। हालांकि फिल्म के मुकाबले वेब सिरीज बेहतर साबित हुई। तो क्या एक कारण यह है कि विषयों के दोहराव की आवश्यकता है? अगर हां, तो फिर धोनी, मेरी कोम या मिल्खा सिंह (उदाहरण के लिए) पर भी कोई वेब सीरिज बननी चाहिए। क्योंकि एक समीक्षक की निगाह से देखें तो तमाम तारीफों के बावजूद इन फिल्मों में भी पानी कहीं कम या ज्यादा रहा होगा।

इस बात को एक्टर रणदीप हुड्डा के एक बयान से समझा जा सकता है, जो उन्होंने बीते साल ‘केसरी’ की रिलीज के बाद दिया था, लेकिन इससे पहले थोड़ा सा फ्लैशबैक में चल रही थी। सन 2002 की गर्मियों में शहीद भगत सिंह पर बनी तीन फिल्में, अजय देवन की ‘दि लीजेंड ऑफ भगत सिंह’, बॉबी देओल की ’23 मार्च 1931: शहीद ‘और सोनू सूद की’ शहीद-ए-आजम ‘एक साथ रिलीज के लिए टिकरा जोड़ां, पर टिकट खिड़की पर कामयाब रही अजय देवगन की फिल्म।

लगभग चौदह साल बाद लगभग ऐसा ही द्वंद फिर देखने को मिला। वर्ष 2016 में राजकुमार संतोषी के निर्देशन में सारागढ़ी युद्ध पर फिल्म बनाने की घोषणा की गयी, जिसमें रणदीप हुड्डा की भूमिका थी। केवल अजय देवगन ने भी इसी विषय पर एक फिल्म की घोषणा कर दी और प्रचारित किया कि वह ‘सर ऑफ सरदार’ का सीक्वल होगा। ये पता है कि इस विषय पर दो फिल्में बन रही हैं, इसके अगले साल अक्षय कुमार की ‘केसरी’ की घोषणा भी जोड़ी गई है। हालांकि अजय देवगन की तैयारी कभी कागजों से आगे नहीं बढ़ती पायी, तो उधर रणदीप ने पूरे तीन साल खुद को गैटअप में झोंके रखा।

जहां ‘केसरी’ की तेजी से बनकर रिलीज भी हो गयी, इसके बाद रणदीप की फिल्म धड़ाम हो गयी। आप हैरान हो सकते हैं ये जानकारी है कि ‘केसरी’ से पहले साल 2018 में डिस्कवरी जीत कॉर्प पर ’21 सरफरोश –

21 सिखों को सिखाना चाहिए
सारागढ़ी 1897 ‘नामक एक टेल सिरीज आ चुकी थी, जिसमें मोहित रैना थे। एक ही विषय को लेकर भगदड़ सी मची थी। इस पर रणदीप ने कुछ तंज भरा अंदाज़ में कहा था- ‘ये अच्छा है कि इतना सब हो रहा है। क्योंकि उस युद्ध में 21 सिख बेट थे और हरेक फिल्म के योग्य है। वास्तव में उन सभी पर 21 फिल्में बननी चाहिए। ‘

दरअसल, लॉकडाउन के कारण 70 एमएम का रूपहला परदा 5-6 इंच की मोबाइल स्क्रीन में सिमट गया और टैब, लैपटाप, कंप्यूटर पर अभिताभ बच्चन से लेकर आयुष्मान खुराना तक की फिल्मों के प्रीमियर होने लगे। वे विशुद्ध ओटीटी मार्का फिल्में और वेब सिरीज चाहते हैं या रिलीज की बाट जोहिंग बॉलीवुड की मेनस्ट्रीम फिल्में हैं। दर्शकों के बीच बॉलीवुड के टिपिकल फ्लेवर से इतर कुछ अलग किस्म की मनोरंजक सामग्री देखने का भरपूर मौका मिला। और सात महीने बाद जब सिनेमाघरों के फिर से खुलने की घड़ी आई तो ये पक्का हो गया कि ओटीटी, पैरलल हूर न तो उस तरफ है।

हिट हुआ मिर्जापुर

लेकिन मिर्जापुर क्या हिट हुआ रक्तांचल, बरखा, रंगकर्मी, जामताड़ा और अपहरण जैसी सिरीज की बाढ़ सी आ गयी। सेक्रेड गेम्स और असुर ने चर्चा और कामयाबी पायी तो पाताल लोक, अभय और इसी तर्ज पर कई सिरीज बाजार में जोड़े गए। इसी तरह पुलिस के कामकाज और अपराध की दुनिया के अलग-अलग चित्रण करती सिरीज की भी भरमार है, जो कमोबेश एक की तरह हैं। एक जने में अपराध कथाओं के लिए मनोहर कहानियां और सत्यकथा जैसी दो मैगजीन हुईं थीं। बाज़ार में दोनों का दम था और जो प्रतिस्पर्धी था, वो इन दोनों के बीच ही था। फिर इन जैसी ही कुछ और पत्रिकाएँ भी धवधड़ आने लगीं। ऐसी होड़ और अफरातफरी मची कि एक समय बाद नई पुरानी सब मैगजीन बस गयी।

विशेष ऑप्स, अवरोध और दि फैमिली मैन के बाद ऐसे ही ढेरों शोज बनने लगे हैं। गूल, घोस्ट स्टोरीज, बुलबुल और टाइपराइटर जैसे सिरीज के बाद हॉरर श्रेणी में नएपन की कमी खलने लगी है। क्या एक दर्शक के रूप में आप यह नहीं सोचते हैं कि ये मेरी फैमिली, अल्बा ताजबा, लाखों में एक, गुल्लक या लिटिल थिंग्स जैसे शोज ज्यादा क्यों नहीं बनते हैं।

ओटीटी एक उभरता हुआ मंच है, जो कई निराशाओं में बहुत अच्छा मनोरंजक कंटेंट दे रहा है और उम्मीद है कि फिल्मों से इतर इस मंच पर विविधता और ताजगी लंबे समय तक बनी रहेगी। दर्शकों की दिलचस्पी बनी रही इसलिए ओटीटी के अलग-अलग मंचों को बाजार की भेड़चाल और दोहराव से थोड़ा परहेज करना होगा, वर्ना कहीं ऐसा न हो कि कुछ ही वर्षों में यह मंच बॉलीवुड की सबसे सस्ती कॉपी न बनकर रह जाए।



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