मुफ़्त कीवर्ड मोड में चले जाओ रामू
इस बीच में कि कोई ‘तूफान’ नहीं होगा, ऐसा लगता है कि रामू अपने परिवार के जरिये कुभंकरणों को जगाने की कोशिश कर रहे हैं। जिनके साथ वे नहीं जुड़ते, उन्हें भी वह टैग करते हैं। हालांकि थोड़ी मशक्कत के बाद फिल्म बिरादरी की तरफ से डेढ़ पृष्ठों एक का बयान आया, लेकिन उसमें एकताता का फील क्या फेक्टर नदारद था। याचना स्वर से समृद्ध इस पत्र में आत्मविश्वास, गौरव और मान-सम्मान की गैर मौजूदगी ही शायद रामू को बहुत खल जोड़ा, जिस पर उनकी प्रतिक्रया आयी ‘टू लेट एंड टू थंडा’।
कहीं वे इस दौर का कोई ‘एंग्रीमैन’ तो नहीं ढूंढ रहे हैं, जिनके तेवर ‘सरकार’ की तरह हैं। ऐसा ना हो कि बॉलीवुड की उदासीनता से आजिज़ आ वह आने वाले दिनों में कहीं ‘मुक्त शब्द’ मोड में न चले जाएँ।
एलबीबी लड़ाई या बचाव का नया तरीका
बीते कुछ महीनों में फिल्म इंडस्ट्री पर कई तरह के आरोप लगाए गए, जिनके बारे में बॉलीवुड की चुप्पी अखरती है। कुछ खेद पत्र, वीडियो संदेश, अदालत का नोटिस और बॉलीवुड स्ट्राइट बैक का हैशटैग। क्या यह किसी लंबी लड़ाई की आहट है? या खुद पर लगे आरोपों का जवाब देने का कोई नया तरीका नहीं है।
ऐसा लगता है कि बॉलीवुड खुद के लिए ही मजबूती से लड़ने के मूड में नहीं है। कमरों में बैठकर महज प्रेस विज्ञप्ति जारी कर ‘सामूहिक कदम’ कम, पीआर की काफी ज्यादा लगती है। शुरूआती कदम के रूप में यह ऐसा करना कुछ हद तक ठीक हो सकता है, लेकिन क्या सारा जोर केवल सोशल मीडिया और अदालत का दरवाजा खटखटाने पर ही लगाना चाहिए।थोरा पीछे मुड़कर देखें तो नामचीन सितारों के ऐसे ढेरों एक्सक्लूसिव इंटरव्यूज याद आते हैं, जिन्हें लेकर गपशप के बाजार में भूचाल आ जाता था। तो अब क्या समझा जाए कि बिल्कुल खास कहे जाने वाले वो साक्षात्कार क्या केवल अपनी छवि चमकाने, प्रचार या सनसनी फैलाने के लिए तय किए गए थे? या हमें इंतजार करना चाहिए अगले किसी टेडएक्स मीट का, जिसमें लीडरशिप, संघर्ष और सत्य पर व्याख्यान देने के लिए कोई फिल्म सिलेब्रिटी आमंत्रित की जाएगी, जो ये बताएगी कि मन में बैर पालने वालों के मुंह कैसे बंद किए जाते हैं। मूलतः में झुके कंडिशंस और बुझ मन से ‘अस्मिता’ बचाने आगे आये शहनों को इस मुश्किल समय में अपने ही मोहल्ले के किसी अनुभवी बुर्जुग की घोती की ज्यादा जरूरत है।
तब के स्टार्स और अब के बयान बग
हालांकि इस मसले में कई आवाजें हैं, जो कायदे से जवाब देने में पीछे नहीं हैं। लेकिन क्या उनमें से किसी के दिमाग में यह सवाल नहीं आया कि ऐसा करने से उनका करियर खतरे में पड़ सकता है। ऐसे में थोड़ी हैरत तो जरूर होती है कि ‘स्ट्राइक बैक’ के नाम पर एकजुट दिखने वाली यह मंडली, क्या वही बिरादरी से है ताल्लुक रखता है जो 34 साल पहले अपने ‘अस्तित्व’ की लड़ाई के लिए बिना किसी ‘ए’ चिल्लाहैन ‘का इंतजार किया था। तब की महाराष्ट्र सरकार के सामने मोर्चे पर बैठ गयी थी।
ये बात सन 1986 की है। नवंबर का ही महिना चल रहा था, जब विशेष टैक्स के मसले पर पूरी फिल्म उद्योग सड़कों पर उतर आयी थी। खबरों की पुरानी कतरनें बताती हैं कि तब निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा ने कहा था – ‘हमने अब से पहले अपने लिए कभी ऐसा आंदोलन नहीं किया है। लेकिन अब जंग शुरू हो गई है। ‘ एकजुटता का यह आह्वान उस एक्षण कमेटी के तत्वावधान में किया गया था, जो तब के तब ही बनी थी। ऑल इंडिया फिल्म प्रोड्यूर्स काउंसिल के अध्यक्ष मनमोहन देसाई ने कहा था – ‘अब ये लड़ाई जीने और मरने की है’। बी। आर। चोपड़ा और वी.आर. शांताराम जैसे दिग्गज फिल्मकार भी मोर्चे में शामिल थे और पहली बार सांसद बने सुनील दत्त साहब (बच्चन जी की अनुपस्थिति में), सरकार के नुमाइंदों तक अपनी बात पहुंचाने में जुटे हुए थे।
तब तक केवल राष्ट्रपति विज्ञप्तियों पर भरोसा करने वाले बाजा पूरे आत्मविश्वास के साथ मीडिया से भी बात की जा रही थी। बताते हैं कि हालात को लेकर दत्त साहब ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को एक टेलिग्राम भी भेजा था। इधर, आंदोलन का असर फिल्म उद्योग के कामगारों पर उनकी सहायता राशि बढ़ाने का अभियान भी चला गया है। मोर्चे के लिए राज साहब, दिलीप कुमार, धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना, फिरोज खान, अमजद खान, महमूद, हेमा मालिनी, स्मिता पाटिल, जीनत अमान, माधुरी दीक्षित तक सब सड़कों पर उतर आये थे। देव आनंद, राजेश खन्ना, मिथुन चक्रवर्ती, जितेन्द्र, शशि कपूर, शबाना आजमी, दादा कोंडके, राज बब्बर सहित फिल्म सितारों की एक लंबी लिस्ट थी, मोर्चे में शामिल होने वाले। जिसको जैसा आया, वैसा मंच से बोल गया। इसकी एक छोटी सी झलकी यू-ट्यूब पर देखी जा सकती है। हालांकि उद्योग की गुटबाजी और लोगों का आपसी मन मुटाव तब भी सामने आ गया था। क्योंकि आंदोलन के बावजूद उद्योग के हाथ में कुछ खास नहीं आया था। लेकिन खटास इतनी नहीं थी कि अपनों के लिए ही जहर बन जाता।
कुछ तो लिहाज दो माथुर साहब
ये बताने की ज़रूरत नहीं है कि कब कब उद्योग की एकजुटता, राष्ट्र की दृढ़ता का आधार भी बना हुआ है। पर मौजूदा संकट के बीच खिलाड़ी कुमार का वीडियो संदेश ‘याचना स्वर ’से ज्यादा प्रतीत नहीं होता है। वे आत्मचिंतन की बात कर रहे हैं, वातावरण में नकारात्मकता की बात कर रहे हैं। वह कहता है कि बहुत कुछ चाहते हैं, लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि क्या कहो, क्या कहो। हो सकता है कि बाकी कुछ कलाकार भी ऐसे ही कशमकश में हों। देखा जाए तो वह जो कहना चाहता था, अपनी सहूलियत से उन्होंने कहा। लेकिन ये बात वो लोगों की आँखों में दिखे डालकर कहते हैं तो बात कुछ और होती है। वैसे ही जैसे उन्होंने जिरह के दौरान कहा था – ‘कुछ तो लिहाज दो माथुर साहब …।’
शायद इससे ज्यादा जोश तो कोलड्रिंक के उस विज्ञापन से आ जाता है, जिसकी पंचलाइन अब एक मुहावरा बन गयी है। दरअसल, आज निराशानगरी तरह-तरह के आरोपों के जो दंश छेल पड़ रहे हैं, उनसे छुटकारा पाने के लिए खुद की एकजुटता, साहस और संकल्प की जरूरत है, जो की-बोर्ड पर चटर-पटर करके हासिल होना मुश्किल है।
नए दौर में लेखन नई कहानी को शामिल करेगा
नब्बे के दशक की शुरूआत में जब देश के कुछ हिस्सों में नफरत और अशांति के बादल छाए हुए थे, तब फिल्म निर्माताओं द्वारा प्रेम, शांति, भाईचारे और राष्ट्रीय सदभावना के प्रचार के लिए एक बेहद शानदार वीडियो जारी किया गया था। प्यार की गंगा बहे, देश में एक रहे … गीत में न केवल बॉलीवुड बल्कि दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग के कलाकारों भी थे। रजनीकांत, ऋषि कपूर, जैकी श्राफ, नसीरुद्दीन शाह, चिरंजीवी, आमिर खान सरीखे सितारों के साथ यह वीडियो शोमैन सुभाष घई ने बनाया था, जिसमें संगीत दिया था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने और बोल थे जावेद अख्तर के। उसी साल गर्मियों में ये वीडियो एक बार फिर से चर्चा में आया और देखते ही देखते ट्रेंड करने लगा।
वर्ष 2002 में कुछ कुछ ऐसा ही एक वीडियो नफरत मिटाने के संदेश के साथ जारी किया गया था, जिसमें बच्चन साहब के साथ क्रिकेट खिलाड़ी, संगीत और कला जगत के लोग भी थे। भारतीय ब्राडकास्टिंग फाउंडेशन के सहयोग से इस वीडियो को रोहेना गेरा (तब रोहन सिप्पी की पत्नी थी) ने बनाया था। तो साल 2009 में भारत और निर्माताओं के विवाद में अपनी अनबन को एक तरफ रख शाहरुख और आमिर एक मंच पर साथ आ गए थे। विडियो संदेश और कोर्ट कचहरी से इतर ऐसे कुछ प्रयास फिर से नहीं किए जाने चाहिए?
विशाल ठाकुरफिल्म समीक्षक, लेखक
दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। अलग-अलग अखबारों में फिल्म समीक्षक रहने के बाद अब स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं।