
हम यह भी कहना चाहते हैं कि नेपोटिज्जीम हर क्षेत्र में मौजूद है चाहे वह राजनीति हो, या बायकूरोकेसी, शासवेसी हो या धर्म संबंधी क्षेत्र। भाई भतीजावाद का चारों ओर बोलबाला है। बालीवुड पर तो सिर्फ नेपोटिज्हैम का आरोप है अन्य क्षेत्रों में तो यह भ्रंश जर्टाचार और लालफीताशाही के साथ मौज़ूद है। बालीवुड देश की सबसे जियादा पैसे कमाने वाली इंडस्ट्री है। ये बीसवीं सदी है ज़नाब, गालोबलाइज़ेशन का दौर, यहाँ जो सफल है वो सही है। ये वो दौर है जहां सच, झूठ और ईमानदारी से ऊपर सफलता को रखा जाता है। यहां यह नहीं देखा जाता है कि आपको सफलता कैसे मिल रही है जो सफल है वह सममानीय है। यही इस दौर की मान्यताप्रताप रीत है। जब पूरे देश और समाज को इस कसौटी पर कसके परखा जा रहा है तो बालीवुड से दूध से धुला होने का अनुरोध है? सो काल्ड नेपोटिज्म होने के बावजूद या शायद होने के कारण, फ़िल्मम इंडस्ट्री सफलता के योग पर है। बिना किसी सरकारी सहायता या सब्सिडी के, अपने बल पर, अपनी पूंजी के बल पर, सबसे बड़ी बात अपनी खुद की जोखिम पर। गहरी खाई पर तनी रस्सी पर नट की तरह चलने वाला जोखिम। ज़रा सी लापरवाही जान ले ले, ऐसे पर्दाफाश।
‘जहां उनके सपने पूरे होते हैं, वहां हमारा प्रदर्शन शुरू होता है’
बॉलीवुड की वादियों में इन दिनों यह जुमला बहुत गूंज रही है। किसी आउट साइडर कलाकार का जुमला है। मुंबई फिल्म्स इंडस्ट्री में फैले भाई भतीजावाद के संदर्भ में इस वाक्ते के सहारे बालीवुड के स्थापित कलाकारों और फिल्मों निर्माता मेकर की बखिया उधेड़ी जा रही है। कहा जा रहा है कि बालीवुड में काम करने और सफल होने के लिए जरूरी है कि आप किसी बड़े फिल्मीकार या कलाकार के किड्स हो या उनके भाई बहन हों। ये बहुत हद तक सच है, लेकिन पूरा सच नहीं है। यहां फिर से दोहराने के लिए हर सिक्टेक के दो पहलू होते हैं।
बालीवुड के पापुलर दौर के शुरुआती दिनों की बात करते हैं। उन दिनों कपूर घराना और बाद में चौपड़ा और यशराज घराने के लोगों ने फिल्मम इंडस्ट्री में अपने परिवार के लोगों को आगे बढ़ाया। जिनकी उपस्थिति के रूप में आदित्य चौपड़ा, करण जौहर और रणधीर कपूर और करीना जैसे नाम अभी भी सक्रिय दिख जाते हैं। लेकिन उस दौर में भी राजकपूर के साथ दिलीप कुमार, देवानंद, राजेन्द्रदेव कुमार, गुरूद्वत जैसे नान फिल्मी बेकग्राउंड के लोग सफल थे। बाद के वर्षों में राजेश खन्ना, धर्मेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा और अमिताभ झाचन जैसे बाहरी कलाकारों ने इंडस्ट्री पर राज किया।
आज के दौर की बात करें तो तो शाहरुख खान, अक्षय कुमार, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, जॉन इब्राहीम, रणबीर सिंह आदि के अलावा नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, ओम पुरी, अनुपम खेर, पंकज त्रिपाठी सहित न्यूबर्गई इरफ़ान खान का नाम लिया जा सकता है। इनके अलावा आशुतोष राणा, मुकेश तिवारी, नीना गुप्ता, सतीश कौशिक, राजपाल यादव, और रघुवीर यादव का भी एक संक्षिप्त दौर है। सबका जिक्र संभव नहीं। ये सभी नान फिल्मी बेकग्राउंड से बाहर के लोग हैं। हूरियन्स की बात करें तो शुरू करें उस कलाकार से जिसने नेपोटिज्म के नाम पर इंडिस्ट्री को जमकर लताड़ा, कंगना रनौत। यानि झंडा उठाने वाली ही अपनी बात को गलत साबित कर रही है। कंगना से याद आया तेजी से उभरने वाला दिलजीत दोसांझ भी बाहरी है।
कंगना के अलावा दीपिका पादुकोण, कैटरीना कैफ, प्रियंका चौपड़ा, जूही चावला, प्रीति जिंता, माधुरी दीक्षित, जैकलीन फर्नांडीज़ आदि कई नाम हैं। पुरानी होरोइंथस में वहीदा रहमान, साधना, वैजयंतीमाला और आशापारेख का नाम ले सकते हैं। और भी नाम यहाँ हैं लेख में सबका जि’क्र संभव नहीं है। इनमें जैकलीन तो श्रीलंका से आई है यानि बाहरी के साथ विदेशी भी। इसी तरह कैट इंगलैंड से आई है। अरे हां, अक्षय कुमार भी कैनडा के नागरिक (दोहरे) हैं। इसका मतलब इंडिस्ट्री इतना उदार है कि वो तो बाहरी कलाकार को तो सर पर बिठाती ही विदेशियों से भी परहेज़ नहीं करती। फिर भी नेपोटिज्म का आरोप? इसके अलावा निर्देशकों की बात करें तो सुभाष घई, संजय लीला भंसाली, अभिनवशप, अनुराग बसु और तिग्मांशु धूलिया जैसे लोगों के नाम सामन आते हैं।
गाड़ी को उल्टा चला रहे हैं। उनकी बात करते हैं जो इस नेपोटिज्म की बदौलत इंडस्ट्री में आए और फ्लॉप तक बाहर हो गए। तीन नाम सबसे प्रमुख हैं जो साबित करता है भाई भतीजावाद के दम पर एंट्री तो हो सकती है लेकिन टिकने के लिए काबिलियत जरूरी है। पहला नाम अभिषेक चाइल्ड एंडन का है। उनके पिता सदी के नायक कहलाते हैं। बहुत होशियार हैं, समझदार हैं और सबसे सौदे करने में भी मदद करते हैं। चाहे वो राजीव गांधी हों, श्याम-अमर की जोड़ी, या फिर बाला साहेब ठाकरे हो या नरेन्द्र मोदी। हर जगह फिट हैं। बहुत होनहार बाप ने बेटे को काम तो बहुत दिलाया लेकिन दर्शकों ने उसे सिरे से खारिज कर दिया। दूसरा नाम उदय चौपड़ा धूम जैसी सफल सीरीज़ भी उसे नहीं मिला। और अपने घर की प्रतिष्ठित प्रोडक्शन कंपनी होने के बावजूद इंडस्ट्री से बाहर। एक ज़मीन में गुलशन कुमार की बालीवुड में तूती बोलती थी। लेकिन अपने सुनहरी दौर में भी वो लाख कोशिश के बावजूद अपने भाई भूषण कुमार को इंडस्ट्री में सेटल नहीं करवा सके। जितेन्द्र के पुत्र तुषार कपूर और कुमार गौरव भी इसका बढि़या उदाहरण है। इनके अलावा फदीन खान (सलमान खान), विवेक ओबेराय, होद खान (संजय खान), जिनमें आथिया शेट्टी (सुनील शेट्टी), अनन्या पांडे (चंकी पांडे), त्रिवेंद्रलाल खन्ना और ईशा देओल जैसे नाम गिनाए जा सकते हैं।
हम यहां नेपोटिज्म के साथ सफल होने वाले कलाकारों का मानकर जि’क्र नहीं कर रहे हैं। ऐसकि हमने पहले कहा था कि जो योग पाठ होगा, काबिल होगा और जो दर्शकों की नब्ज़ पर हाथ रखना जानता होगा वह सफल होगा। यहां कलाकार की एंट्री उसके टिकने की सुनिश्चित नहीं है। जो टिकोरे या ताल है तो योग पाठ है।
कहने का मतलब ये है कि ये इंडस्ट्री सिर्फ और सिर्फ काबिल लोगों को ही सफल बनाती है। योग्यता के आधार पर लोगों को सिर पर बिठाती है। ये फील्ड ऐसी है जिसमें करोड़ो रूपए दाव पर लगाए जाते हैं और यहां सिर्फ इसलिए रिजेक्ट नहीं ली जा सकती कि निर्माता अपने भाई या बेटे-बेटी को एस्टेब्लिश करना है। मेकर ऐसी कोशिश जरूर करते हैं और अपने परिवार के सदसय को एक मौका देते हैं। ऐसे लोगों पर आरोप लगाने के पहले हम यह भूल जाते हैं कि ये लोग किसी बने बनाए चिन्हथा में अपने बेटे को सीईओ नहीं बना रहे हैं, या उसे सीधा कुर्सी पर नहीं बिठा रहे हैं, लेकिन इसके लिए वे एक बहुत बड़ी राशि खर्च कर रहे हैं। हैं और सबसे बड़ी बात उसके डूबने की रिक्ति भी ले रहे हैं। वह कहती हैं ना इरीक है तो रिक्ति है।
अब सवाल ये है जब सभी लोग अपनी अपनी पहलें में ऐसा ही करते हैं। फिर से स्कैनर बालीवुड पर ही प्रतिबंध? वास्तव में बॉलीवुड में जितनी गल्लमर और आकर्षण है उतना ही किसी दूसरी फील्ड में नहीं। जो नाम और कीमत यहां मिलती है, वह कहीं और नहीं है। बाहरी लोग जो यहां आते हैं वे भी उसी से प्रभावित होकर आते हैं। कोई समाज सेवा के लिए नहीं आता है।
एक बार फिल् मम मेकर की तरफ सोच सोचिए वह किसी नए और अनजान आदमी पर इतनी बड़ी रकम दाव पर कैसे लगाएं? दरअसल भारत में ऐसा कोई इंसटट्यूट ही नहीं है जहां से निकले कलाकार पर पूरा भरोसा किया जा सके कि वह मेकर को पैसे कमाने के लिए देगा। देखिए स्क्रीनिस्ट होना एक अलग बात है और बाक्स ऑफिस पर सफल होना दूसरी बात है। फिल्मोंम मेकिंग का काम कोई समाज सेवा नहीं है के निर्माता किसी दूसरे पर उपकार करने के लिए उसे मौका दे अपने पैसे लगाकर। यह शुद्ध रेगवेसी है, खूब पैसा लगाकर दुना, तिगुना, चौगुना और सौ गुना कमाई की चाह रखने वाली धंधा। जहाँ पैसा है, नाम है, शोहरत है और इससे ऊपर बहुत बड़ी रिक्ति है, वहाँ नैतिकता और समाज सेवा जैसे शबद बेमानी हैं। ये बहुत ही उदासीन दुनिया है।
ऊपर जि’क्र इंसटट्यूट का हुआ है। तो बताते हैं पुणे फिल्मोंम इंसटट्यूट की जब शुरूआत हुई तब यहां के निकले कलाकारों को इंडिस्ट्री ने सर पर बैठाया। बाद में एनएसडी से निकले लोगों को भी बॉलीवुड ने खूब तवज्जीओ दी। लेकिन यहां से निकले लोग गुडे वीर होने के बावजूद बाक्स ऑफिस पर धमाल नहीं मचाने में सफल नहीं हो पाए। दरअसल भारत की जनता का मिज़ाज ही कुछ ऐसा है कि वो फिल्में सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए देखती है। सद्रत प्रति गरीब जनता के पास मनोरंजन का इतना ससता साधन दूसरा नहीं है। इसका सबस बड़ा सबूत ये ओटीटी प्लेटफार्म हैं जिनक कार्यक्रम बहुत पसंद किए जा रहे हैं। एज़ेक वो विदेशी बहुत सस्ते हैं। इसीलिए बीच के दौर में टीवी सीरियल बहुत पसंद किए गए। आज भी उनका वॉयस क्लास है। यहां नए लोग जा रहे हैं, जा रहे हैं, जा रहे हैं। ओटीटी और चैनलस के सीरियल प्रोग्राम्स में नए लोगों को खूब काम मिल रहा है काम देने वालों में बालीवुड के फिल्मी निर्माता भी शामिल हैं, जो यहां सक्रिय हैं। यानि ये लोग यहां नेपोटिज्म नहीं फैला रहे हैं, हैं? बिशेक यहाँ रिड्यू नहीं है।
लेकिन एक बात यहाँ याद रखिए पटेल हो या ओटीटी प्रोग्राम ये एक सीमा तक ही चल रही होगी। सिक्सकि सिनेमा पहुंच परिवार के लोगों को खासकर युवाओं को आउटिंग के साथ मनोरंजन की सुविधा देता है और आउटिंग में बहुत आकर्षण है।
भाई भतीजावाद कोई नई बात नहीं है ना देश के लिए और ना ही दुनिया के लिए। जब कैथोलिक पोप ओर बिशप बहुत पॉवरफुल हुआ तो उन दिनों उन्होंने अपनी पहुंच और पॉवर के दम पर अपने परिजनों को उस्ताच पदों पर आसीन करवा दिया। उनके इस काम को नेपोटिज्म’म के नाम से पुकारा गया और इस तरह नेपोटिज्मम शब्बीद चलन में आया। भारत में इसे भाई भतीजावाद की संज्ञा से नवाज़ा गया है। बाद में इस धारणा का फैलाव राजनीति, मनोरंजन, रेगवेसी और धर्म संबंधी क्षेत्रों में हुआ। नेपोटिज्म यत्र-तत्र-सर्वत्र मौजूद है, बालीवुड को कोसना बंद करें।
नोट: ये लेखक के नजीजी वचिरा हैं।