
निश्चित रूप से फिल्म बिरादरी के लिए यह सबसे बड़ा सम्मान है। ऐसे ही संगीत की दुनिया के लिए ग्रैमी अवार्ड्स और टीवी की दुनिया के लिए एम्मी अवार्ड्स हैं, जिनमें दुनिया के कोने-कोने से प्रविष्टियां भेजी जाती हैं। ग्लोब अवार्ड्स सहित कुछ अन्य अवार्ड्स भी हैं, जिन्हें फिल्म, टीवी और संगीत की दुनिया के कलाकार जीवन में कम से कम एक बार पाने की चाह रखते हैं और बहुतेरे ऐसे भी हैं जो इसके लिए जी तोड़ मेहनत भी करते हैं। प्रतिस्पर्धा एपिसोड होता है, इसलिए एलेक्स होने के बावजूद कई बार एक कलाकार को लंबा अरसा लग जाता है, ऐसे किसी प्रतिष्ठित को पाने में। फेहरिस्त बहुत लंबी है।
हाल ही में दिल्ली क्राइम, एक वेब सिरीज को प्रतिष्ठित 48 वें इंटरनेशनल इमामी अवार्ड्स (इंटरनेशनल एमी अवार्ड्स) से नवाजा गया। ओटीटी मंच नेटफ्लिक्स ओरिजिनल्स की यह ड्रामा श्रेणी में विजयी होने वाली यह पहली भारतीय वेब सिरीज है, लेकिन इस सिरीज की कामयाबी पर ऑस्कर नॉमिनेशन जैसा शोर शराबा नहीं देखा गया। कोरोना का पहलू थोड़ा देर के लिए अलग रख दें, जिसकी वजह से पहली बार यह कार्यक्रम वर्चुअली संपन्न हुआ, तो भी जो वेलकम इस सिरीज और इसके कलाकारों या इससे जुड़े लोगों को मिलना चाहिए, जो शायद नहीं मिला था। क्या इमामी का महत्त्व ऑस्कर से कुछ कम है?
इसके संभावित कारणों पर बात फिर कभी। उससे पहले एक नजर सिरीज पर दौड़ाते हैं, जिसकी वजह से पहली बार इतना बड़ा आंतरिक सम्मान हमारे देश के कलाकारों को मिला।
वे कनाडा से आए, सिरीज मेकर दे गए
दिल्ली क्राइम-सीजन 1, सात किस्तों वाली इस क्राइम ड्रामा वेब सिरीज का निर्देशन रिची मेहता ने किया है। कनाडा में जन्मेंट और उसी पले-बढ़े रिची एक लेखक भी हैं और अमल (2007), सिद्धार्थ (2013) और आई विल फालो यू डाउन (2014) जैसी फिल्में बनाई हैं। यह सिरीज वर्ष 2012 दिल्ली गैंग रेप मामले में अभियुक्तों की पहुंच-पकड़ और सटीक प्रारंभिक पुलिसिया जांच सहित कई अन्य बातों का चित्रण करती है। वरदात की पहली पुलिस कॉल से लेकर मुजरिमों के पकड़े जाने तक के वाकियों को संभावित और वास्तविक लोकेशंस पर यथार्थवादी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसलिए यह कहीं न कहीं डाक्यूमेंटरी फिल्म का अहसास भी देती है। हालांकि यह सिरीज की घटना से जुड़े पुलिस दस्तावेजों-जांच पर आधारित बताई जाती है, लेकिन इसमें मूल रूप से किरदारों के नाम को बदल दिया गया है।
मसलन, सिरीज का संपूर्ण विवरण डीपीपी वर्णिका चतुर्वेदी (शेफाली शाह) और उनकी टीम के इर्द-गिर्द घूमता है, जो आईपीएस छाया शर्मा से प्रेरित कहा जाता है। हालाँकि अगर इसके शिल्प की बात करें तो यह विशुद्ध रूप से एक मनोरंजक प्रस्तुति है, जो उस घटना को लेकर पल-पल तनाव का स्तर बढ़ा देता है। यह बात को लेकर भी चौंकाती है कि इतने कम समय में पुलिस ने कम संसाधनों, दबाव और तनाव के साथ इतनी गहन छानबीन को कैसे अंजाम दिया होगा ।खैर, इस सिरीज की सिम्नाई समीक्षा और कई अलग-अलग पहलुओं को लेकर अलग-अलग एक लेख लिखा जा सकता है। और न केवल शेफाली शाह का दमदार प्रदर्शन, बल्कि साथी कलाकारों के योगदान, चुस्त लेखन, पार्श्व संगीत, फिल्मांकन आदि के विश्वस्तरीय रचनात्मक पहलुओं पर एक नए सिरे से चर्चा तो बनती है। लेकिन इससे पहले ये बात परेशान करती है कि तमाम फिल्मकार ऐसी शानदार प्रस्तुतियां बनाने में पीछे क्यों रहते हैं।
आखिर क्यों कनाडा, आस्ट्रेलिया या कहीं और से आये फिल्मकारों को इस तरह की कहानियां आकर्षित कर जाती है, जिन पर हमारे फिल्मकारों की नजर नहीं जाती। और जाता भी है तो अक्सर वे फार्मूला संस्कृति का शिकार बन जाते हैं। निर्देशक के नाम के साथ मेहता सर नेम जुड़े होने से पहली नजर में यही लगता है कि एनआरआई हुआ तो क्या, बंदा तो कुछ ही है। लेकिन हमें ये भी देखना चाहिए कि सरनेम से अपना लगने वाले इस मुंडे ने इस 6-7 घंटे के कंटेंट को बनाने में चार साल का समय लगाया है।
हालांकि, बात केवल दिल्ली क्राइम सिरीज की नहीं है। आप रिची मेहता की बाकी दो हिंदी फिल्में भी देखिए और सोचिए कि हर तरह के संसाधन होने के बावजूद ऐसे कंटेंट को ज्यादा से ज्यादा क्यों नहीं बनाया जा रहा है। या कहीं और उपयुक्त और समानांतर सिनेमा की तरह ओटीटी मंचों की सस्ती वस्तुओं पर भी मेनस्ट्रीम सिनेमा तो हावी नहीं हो रहा है?
ओटीटी कंटेंट की समस्याएं
ऐसा नहीं है कि ओटीटी मंचों पर दिखाई जाने वाली हर सामग्री में कुछ न कुछ चौंकाने वाला ही होता है। लेकिन ये भी सच है कि साफ-सुथरे कंटेंट के मामले में विभिन्न ओटीटी मंच, टेलिविजन जैसा भरोसा हासिल नहीं कर पाए हैं। हालांकि टीवी पर भी आजकल ऐसी कई चीजें देखने को मिल जाती है, जिनसे कई बार सकारात्मकता बढ़ जाती है। लेकिन एक बात से आप आश्वस्त रहते हैं कि अचानक से कोई मां-बहन की गाली नहीं दे रही होगी, जबकि ओटीटी पर रैम्प कैटवाक जैसा डर लगा रहता है कि कब ड्रेस या वर्ड मालफंक्शन हो जाए।
मसलन, क्राइम या माफिया आधारित कंटेंट का आरंभ और अंत, लुगदी साहित्य से आगे नहीं जा पाता है इसलिए अपराध जगत पर बनाई गयी अच्छी सामग्री पर भी शक होने लगता है। या फिर राजनीतिक और धार्मिक पहलुओं पर बना कोई कंटेंट विवादों की भेंट चढ़ता दिख जाएगा, जबकि सेना को लेकर या खुफिया एजेंसी के काम-काज पर कई अच्छी वेब सिरीज बनाई गई हैं। वीर सपूतों और ऐतिहासिक घटनाओं से प्रेरित संदर्भों पर भी कई उदाहरण हैं, जो वास्तव में चौंकाते हैं। लेकिन जब भी ओटीटी के कंटेंट पर चर्चा होती है तो बात घूम फिरकर अपशब्दों की भरमार, अंतरंग दृश्य और गाली-गुप्ता पर आ जाती है। ऐसा लगता है कि 99 प्रति कंटेंट में यही सब भरा होता है। अगर ये भ्रम है तो इसे ओटीटी मंचों को ही दूर करना चाहिए। शायद वे कुछ सुधर करके ऐसा कर सकते हैं।
हालांकि इस तरह की किसी भी चीज को लेकर 18 प्लस या 16 प्लस जैसी चेतावनी भी दी जाती है। यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि उपभोक्ता फलां फिल्म, सिरीज या कोई शो देखने से पहले पड़ताल कर सके कि इस कंकेंट में हिंसा, सेक्स सीन्स, अपशब्द वगैरह का इस्तेमाल किया गया है या नहीं। सबके अपने अलग-अलग तरीके हैं। लेकिन आप इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि एक्सक्लूसिव स्ट्रीमिंग का फायदा मिलने से 18 प्लस जैसा कंटेंट ही ज्यादा पसंद किया जाता है।
यह भी एक बड़ा कारण है कि आजकल ज्यादातर ओटीटी मंच अश्लीलता, गाली-गलौज और हिंसा के अत्याचार चित्रण को बढ़ावा देने के आरोपों से घिरे नजर आते हैं, जबकि उसी मंचों पर अच्छी खासी मात्रा में स्वच्छ-सुषरी, सार्थक और अनिश्चित सामग्री भी मौजूद हैं। होता है। बेशक, ऐसा कंटेंट नजरों में कम आ पाता हो या उसकी चर्चा मिर्जापुर 2 या पातालोक जैसी न होती हो। लेकिन अगर हमारे देश के योगदानकर्ता को अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स स्पोन्स में सराहना मिल रही है, तो इसका मतलब है कि ओटीटी पर काफी कुछ अच्छा भी हो रहा है।
अच्छे-बुरे की बहस के बीच अवार्ड्स
जरा सोचिए कि बीते साल 47 वें इंटरनेशनल इमामी अवार्डस में सैफ अली खान की सेक्रेड गेम्स वेब सिरीज, बॉट ड्रामा श्रेणी के तहत अवार्ड जीत तो कैसा रहता है। इसके अलावा बीते वर्ष बस्ट नॉन-स्क्रिप्टेड इंटरटेन्मेंट श्रेणी के तहत साधना सुब्रह्मणम द्वारा निर्देशित विटनेस: इंडियाज फोरबिडन लव, जिसे डाक्टूमेंटरी को भी नॉमिनेशन मिला था जो कि आनन किलिंग पर आधारित था। मीडिया में सेक्रेड गेम्स की खबर तो दिखाई दी थी, लेकिन यह डाक्यूमेंटरी लगभग गायब थी। क्या दूसरे खेलों में विवाद को रोकने का फायदा मिला? बीते वर्ष ही लस्ट स्टोरीज, को बस्ट टीवी मूवी और मिनिसिरीज श्रेणी में और बस एक्ट्रेस (राधिका आप्टे) श्रेणी में नामिनेशन मिला। वैसे ये सिरीज भी खासी विवादों में रही है।
ये बात सही है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित फिल्म या टीवी स्पर्धाओं में नॉमिनेशन में भी नाम आने से बहुत उत्साह बढ़ता है और ऐसा लगातार होने पर अवार्डस भी दूर नहीं रह पाते हैं। लेकिन ऐसा तभी होगा, जब फिल्मकार ज्यादा से ज्यादा मात्रा में उम्दा किस्म का कंटेंट तैयार करते रहें और ओटीटी या अन्य मंच उसे ठीक ढंग से लोगों के बीच प्रचारित करें।
इमामी जैसे पुरस्कार का केवल नॉमिनेशन मिल जाने से क्या होता है, इसके अंजाजा आप विटनेस: इंडियाज फोरबिडन लव के उस पोस्टर को देखकर लगा सकते हैं, जो तेज जीत से डिफ़ॉल्ट जाने के बाद बनाया जा सकता है। डाक पर पहली पंक्ति में मोटे-मोटे अक्षरों में एम्मी का जिक्र है।
हमें यहां देखना चाहिए कि एम्मी में लगातार दो साल नॉमिनेशन में अच्छी परफॉर्म करने के बाद सफलता के लिए लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा। दूसरी ओर देखें तो ऑस्कर में नामांकन पाने वाली अंतिम भारतीय फिल्म लगान (2001) थी। उससे पहले मदर इंडिया (1957) और सलाम बांबे (1988) को ऑस्कर में नॉमिनेशन मिला था। दिल्ली क्राइम के अलावा 48 वें एम्मी में बस्ट एक्टर श्रेणी में अर्जुन माथुर (वेब सिरीज मेड इन हैवन) को नामिनेशन मिला और फोर मोर शट्स प्लीज, को बस्ट वर्केडी सिरीज के तहत नामांकन मिला। अपने कंटेंट को लेकर ये दोनों ही सिरीज स्कैनर पर पड़ रहे हैं, लेकिन एक एक्टर के रूप में आगे जाकर अर्जुन माथुर को इसका क्या फायदा मिलेगा, यह देखना होगा।
शायद लोग उन्हें नाम से कम पहचानते हैं। या शक्ल देखकर ये कहते हुए पहचान जाते हैं कि हां, बंदे को फलां फिल्म या सिरीज में देखा तो है। इस युवा कलाकार के संघर्ष की दास्तां को कम शब्दों ज्यादा ढंग से समझना है तो आप जोया अख्तर द्वारा निर्देशित फिल्म लक बाय चांस (2009) देख डालिये। इस फिल्म में उन्होंने अभिमन्यु नामक एक किरदार प्लेया है, जो मुंबई फिल्म उद्योग में कई वर्षों से संघर्ष कर रहा है। दिल्ली से आया उसका दोस्त विक्रम जयसिंह (फरहान अख्तर) रातों रात स्टार बन जाता है, जबकि अभिमन्यु उससे कहीं अच्छे कलाकार होने के बावजूद बस कहीं अटका है।
वर्ष 2004 में अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय और विवेक ओबेराय की फिल्म क्यों हो गई में एक कैमियो से अर्जुन ने फिल्मों में कदम रखा और तब से लेकर अब तक वह लगभग दो दर्जन फिल्मों-वेब सिरीज में लीड से लेकर अब तक कई रोल्स निभाते हैं। हैं। उनकी वाक्य यात्रा देखकर कोई सहजता से कह सकता है कि बंदे का अब टाइम आ गया, जबकि मौलिकता कुछ और है।
ओटीटी मंच से जुड़े कुछ अन्य अवार्ड्स का भी जिक्र करना यहां जरूरी माना जा रहा है। मनोज बाजपेयी अभिनीत दि फैमिलि मैन, सिरीज ने एशियन अकेडमी क्रिएटिव अवार्ड्स के एक नहीं बल्कि चार खिताब अपने नाम किए हैं। सीजन 2-फोर मोर शट्स प्लीज को बुसान फेस्टिवल में एशियन कंटेंट अवार्ड्स 2020 मिला है। इसके अलावा इस सिरीज को छठे वेब सिरीज फेस्टिवल ग्लोबल, हालीवुड में बस्ट वेब सिरीज का भी अवार्ड मिला है। राधिका आप्टे द्वारा निर्देशित उनकी पहली शार्ट फिल्म स्लीपवाकर को पाल स्प्रिंग इंटरनेशनल शार्ट फेस्ट में अवार्ड से नवाजा गया है।
वास्तव में, ओटीटी मंचों की प्रस्तुति में मुख्य रूप से मसालों की सामग्री हावी दिखती है। ऐसे में सार्थक सिनेमा या उस विचारधारा के आस-पास बुनी गयी सामग्री कहीं गुम सी हो जाती है। बड़े पर्दे पर ढांचागत सिनेमा को धीरे-धीरे मिटते हम सबने देखा है। ऐसे में ओटीटी मंचों से एक उम्मीद बंधती है कि ऐसी सामग्री की न केवल आसानी से उपलब्धता है, बल्कि निर्माण का साहस और बाजार का जोखिम उठाने की क्षमता भी है।
(डिसक्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं।)